Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ में लिखा है कि अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है, ये दोनों जिसे ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। व्यावहारिक जीवन में विनयवान व्यक्ति ही पूज्यता को प्राप्त करते हैं तथा परमार्थ में भी विनयवान व्यक्ति ही सिद्धि को प्राप्त करते हैं। वसुनन्दि श्रावकाचार में लिखा हैविणएण ससंकुजलज सोह धवलियदियंतओ पुरिसो। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य ॥ 332 विनय से पुरुष शशाङ्क (चन्द्रमा) के समान उज्जवल यश:समूह से दिगन्त को धवलित करता है। विनय से वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं। __ संसार में देवेन्द्र, चक्रवर्ती और माण्डलिक राजा आदि के जो सुख प्राप्त हैं वह सब विनय का ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष का सुख पाना भी विनय का ही फल है। जब साधारण विद्या भी विनय-रहित पुरुष के सिद्धि को प्राप्त नहीं होती है, तो फिर क्या मुक्ति को प्राप्त कराने वाली विद्या विनय विहीन के सिद्ध हो सकती है अर्थात् कभी नहीं सिद्ध हो सकती 27 विनम्रता मुक्ति का सोपान है। सोलह कारण भावनाओं में भी विनय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसकी पूजन की जयमाल में लिखा है विनय महाधारै जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी बखानी। जिस प्रकार जल रहित नदी सुशोभित नहीं होती उसी प्रकार विनय और प्रशम के बिना व्यक्तियों के कुल, रूप, वचन, यौवन, धन, मित्र, ऐश्वर्य, रूप, सम्पदायें भी सुशोभित नहीं होती। श्रुत और शील जिसकी मूल कसौटी है, ऐसा विनय युक्त मनुष्य जिस प्रकार सुशोभित होता है, वैसा बहुमूल्य वस्त्र और आभरण से अलंकृत व्यक्ति भी सुशोभित नहीं होता 28 अत: ऐहिक और पारलौकिक अभ्युत्थान में विनय का अतिशय महत्त्व है। 28 - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110