Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 37
________________ विभक्त किया गया है -- 1. केवल प्रकृति, 2. केवल विकृति, 3. प्रकृति और विकृति - उभयरूप, 4. न प्रकृति, न विकृति-अनुभय रूप (पुरुष)।' प्रकृति-जो केवल कारण होती है। विकृति-जो केवल कार्य होती है। उभय-जो कारण एवं कार्य दोनों होते है। अनुभय-जो न किसी से उत्पन्न होता है, न ही किसी को उत्पन्न करता है। प्रकृति केवल कारण है। यह किसी से पैदा नहीं होती किन्तु दूसरों को पैदा करती है। "प्रकरोतीति प्रकृतिः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृति महदादि तत्त्वों का मूल कारण है, अतः इसे मूल प्रकृति भी कहा जाता है। मूलप्रकृति एक ही है एवं वह अनादि है। महत् (बुद्धि) अहंकार एवं पांच तन्मात्रा-ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति उभय रूप हैं। ये स्वयं दूसरों से पैदा होते हैं, अतः विकृति है तथा इन्द्रिय, मन आदि को पैदा करते हैं, अतः प्रकृति भी हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन एवं पांच भूतये सौलह तत्त्व विकृति (कार्य) हैं। ये उत्पन्न तो होते हैं किन्तु किसी दूसरे तत्त्व को उत्पन्न नहीं करते। पुरुष न तो किसी की प्रकृति है और न ही विकृति । इसलिए वह दोनों से भिन्न है। इन पच्चीस तत्त्वों को तीन विभागों में भी विभक्त किया जाता है— अव्यय, व्यक्त एवं ज्ञ प्रकृति को अव्यक्त, महत् से लेकर पृथ्वी पर्यन्त तेईस तत्त्वों को व्यक्त एवं पुरुष को ज्ञ कहा जाता है। सांख्य सम्मत उपर्युक्त तत्त्वों को निम्न तालिका से समझा जा सकता हैविभाग स्वरूप तत्त्व का नाम संख्या संज्ञा अव्यक्त 1. 2. महत् व्यक्त 23 केवल प्रकृति प्रकृति प्रकृति और विकृति (उभयरूप) अहंकार पांच तन्मात्रा केवल विकृति पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ मन पांच भूत प्रकृति एवं विकृति से भिन्न (अनुभयरूप) पुरुष कुल योग 4. ____ 25 25 32 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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