Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 26
________________ अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानवरण, दर्शनावरण और अन्तराय- इन तीन कर्मों का क्षय हो जाता है । क्योंकि मोह सबसे बलवान है, अत: उसके क्षय के बाद ही अन्य कर्मों का क्षय सम्भव है । इन सबके क्षय होते ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और वह जीव केवली अर्थात् सर्वज्ञ बन जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । सिं परोक्खमूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥ ४० ॥ अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान बहुत सीमित होता है, क्योंकि जो इन्द्रिय गोचर पदार्थ को अवग्रह, ईहा आदि के द्वारा जानते हैं उनके लिए परोक्षभूत अर्थात् जिसका अस्तित्व बीत गया अथवा जिसका अस्तित्वकाल अभी उपस्थित नहीं हुआ है, ऐसे अतीत, अनागत पदार्थ को जानना सम्भव नहीं हो सकता और जब अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्याय जिस ज्ञान में प्रत्यक्ष न हो तो उस ज्ञान को दिव्य भी नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत केवल ज्ञान में यह दिव्यता है कि वह अनन्त द्रव्यों की ( अतीत और अनागत) समस्त पर्यायों को सम्पूर्णतया एक ही समय प्रत्यक्ष जानता है। प. दोलतराम जी ने 'छहढाला' की निम्नलिखित दो पक्तियों में इसी बात को इस रूप में कहा है - सकल द्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता । एकै काल प्रकट केवलि भगवंता ॥ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैंण परिणमदि ण गेहदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्ठेसु । जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥ 52 ॥ हदि व ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥ 32 ॥ अर्थात् केवल ज्ञानी आत्मा सर्वज्ञ पदार्थों को जानता हुआ भी उस रूप में परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और न उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न होता, इसलिए उस आत्मा के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी वास्तव में क्रिया फलभूत बंध सिद्ध न होने पर उन्हें अबन्धक कहा गया है, क्योंकि केवली भगवान ज्ञेय पदार्थों को न ग्रहण करते हैं, न त्याग करते हैं और उन पदार्थों के रूप में परिणित नहीं होते, फिर भी निरवशेष रूप में सबको अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा एवं सभी ज्ञेयों को सभी आत्म प्रदेशों से देखते और जानते हैं । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org

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