Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ 5 श्रुतज्ञान मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ को मन के द्वारा उत्तरोत्तर विशेषताओं सहित जानने वाला श्रुतज्ञान है । मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। इन दोनों का कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है । मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है । अतः मति और श्रुत- यह दोनों सहभागी ज्ञान हैं। एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते । ये दोनों प्रत्येक संसारिक जीव के होते हैं । मतिज्ञान श्रुतज्ञान का बहिरंग कारण है । अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है, क्योंकि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। फिर भी दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिकं है और स्पष्टता भी अधिक है । श्रुतज्ञान का कार्य शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को पुनः शब्द के द्वारा प्रतिपादित करना । इसलिए इसके अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक रूप एवं अंग बाह्य तथा अंग प्रविष्ट दो भेद हैं। आचारांग सूत्रकृतांग आदि अंग आगम के रूप में इस श्रुतज्ञान के बारह भेद हैं - उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्ति नास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणानुवाद, प्राणवायप्रवाद, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दुसार पूर्व - इन चौदह पूर्वों के रूप में ज्ञान के चौदह भेद भी हैं । इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् - 1/20 अर्थात् यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तथा इसके दो, द्वादश एवं अनेक भेद होते हैं। मन वाले जीव अक्षर सुनकर वाचक के द्वारा वाच्य का ज्ञान होना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है तथा बिना अक्षरों के द्वारा अन्य पदार्थ का बोध होना अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । यह एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों के होता है। श्रुत का मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान के अन्तर्गत है । यह रूपी, अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों को जान सकता है। 3. अवधिज्ञान भूत, भविष्यत काल की सीमित बातों को तथा दूर क्षेत्र की परिमित रूपी वस्तुओं को जानने वाला अवधिज्ञान होता है । अतः देशान्तरित, कालान्तरित और सूक्ष्म पदार्थों के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 19 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110