Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 20
________________ में वही मिथ्या कहलाता है, इसलिये सम्यग्ज्ञान को 'कार्य' तथा सम्यग्दर्शन को 'कारण' कहा है, क्योंकि जब तक दृष्टि सम्यक् न हो, ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता। इसलिए सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान 'सम्यक्' होता है। ज्ञान के सम्बन्ध में जैन धर्म की यह मान्यता भी विशेष महत्व रखती है कि यहाँ ज्ञान के अभाव को अज्ञान ही कहा है। मिथ्याज्ञान को भी अज्ञान माना है। यहाँ इन दोनों में यह अन्तर विशेष द्रष्टव्य है कि जीव एक बार सम्यग्दर्शन रहित तो हो सकता है किन्तु ज्ञान रहित नहीं । किसी न किसी प्रकार का ज्ञान जीव में अवश्य रहता है। वही ज्ञान सम्यक्त्व का आविर्भाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। पुष्पदन्त भूतबलिकृत षट्खडागम की आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका (पुस्तक 1 व 5) में इस विषय में प्रश्नोतर के माध्यम से अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है जिसे प. कैलाश चन्द जी शास्त्री ने अपनी जैन सिद्धांत नामक पुस्तक (पृ. 163) में प्रस्तुत करते हए लिखा है कि मिथ्यादष्टियों का ज्ञान भी भतार्थ (सत्यार्थ) का प्रकाशक होने पर भी वे इसलिये अज्ञानी हैं, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का उदय है। अतः प्रतिभाषित वस्तु में भी उन्हें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होता है । इसलिये उन्हें 'अज्ञानी' कहा जाता है क्योंकि वस्तु स्वभाव का निश्चय कराने को 'ज्ञान' कहते है और शुद्धनय विवक्षा में सत्यार्थ के निर्णायक को ज्ञान कहते हैं, अतः मिथ्यादृष्टि 'ज्ञानी' नहीं है। साथ ही जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना 'ज्ञान' का कार्य है, वह मिथ्यादृष्टि में नहीं है, इसलिये उनका ज्ञान 'अज्ञान' है। वस्तुतः जाने हुए पदार्थ में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले 'मिथ्यात्व' के उदय के बल से जहाँ जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान उत्पन्न नहीं होता , वहां जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान का फल नहीं पाया जाता है। - आचार्य वट्टकेर कृत शौरसेनी प्राकृत भाषा के श्रमणाचार विषयक प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ मूलाचार में ज्ञान का स्वरूप तथा इसके उद्देश्यों के विषय में सार रूप में बड़े प्रभावशाली रूप में कहा है कि जेण तच्चं विबुज्झेज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज तं णाणं जिणसासणे॥5/70 अर्थात् जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाये, जिससे मन की चंचलता रुक जाये, जिससे आत्मा भी विशुद्ध हो, जिससे राग के प्रति विरक्ति हो, कल्याण मार्ग में अनुराग हो और सब प्राणियों में मैत्री भाव हो, उसे ही जिनशासन में 'ज्ञान' कहा है । इसलिए मिथ्यात्व के सहचारी ज्ञान को मिथ्या या अज्ञान कहा जाता है । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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