Book Title: Tulsi Prajna 2005 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ ज्ञान के भेद सिद्धांत ग्रन्थों में ज्ञान को मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल- इन पांच भेदों का जो विवेचन मिलता है वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम या क्षय से प्रकट होने वाली ज्ञान की अवस्थाओं का विवेचन है। ज्ञानावरण कर्म का कार्य आत्मा के इस रूप ज्ञान गुण को रोकना है और इसी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से पूर्वोक्त पांच में से आरम्भिक चार ज्ञान प्रकट होते हैं। ज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्णतया क्षय होने पर निरावरण केवलज्ञान प्रकट होता है। इन्हीं पांच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों के रूप में विभाजन किया गया है। वस्तुतः जिन तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान करके मोक्ष मार्ग में जुड़ा जा सकता है उन तत्त्वों का अधिगम ज्ञान से ही तो सम्भव है। यही ज्ञान प्रमाण और नय के रूप में अधिगम के उपायों को दो रूप में विभाजित कर देता है । इसलिए तत्त्वार्थसूत्र ने 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी ने प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान की चर्चा करते हुए तीन सूत्र प्रस्तुत किए -तत्प्रमाणे आद्ये परोक्षं प्रत्यक्षमन्यत् - अर्थात् पूर्वोक्त पांच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप हैं। प्रथम दो ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं, शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है और जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। ज्ञान के इन पांच भेदों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि यह इन्द्रिय और मन के द्वारा होते हैं। शेष तीन ज्ञान अर्थात् अवधि, मनः, पर्यय और केवलज्ञान- ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। किन्तु इनमें भी अवधिज्ञान तथा मनः पर्ययज्ञान- ये दो देशप्रत्यक्ष हैं तथा एक मात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। वस्तुतः जैनदर्शनानुसार ज्ञान जीव से भिन्न नहीं है। जीव चैतन्य स्वरूप है, चेतना ज्ञान दर्शन स्वरूप है । उस चैतन्य स्वरूप आत्मा में सब पदार्थों को प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही जानने -देखने की शक्ति सदा काल है। किन्तु अनादिकाल से ज्ञानावरण ,दर्शनावरण कर्मों के निमित्त से वह शक्ति व्यक्त नहीं हो पाती। इनके क्षयोपशम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी जीवों के अपनी अपनी योग्यतानुसार होते है। विशेष योग्यता से अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान भी सम्भव है। वस्तुतः यह सब ज्ञान भी केवल ज्ञान के ही अंश हैं, क्योंकि ज्ञान गुण तो एक ही है, वही आवरण के कारण अनेक रूप होता है, पूर्ण आवरण हटने पर एक केवलज्ञान के रूप में प्रकाशमय होता है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी कषाय पाहुड़ की जयधवला टीका के प्रारम्भ में मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान का अंश माना है। 16 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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