Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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'हमारे जो स्वामी है उनका यश चारों ओर विस्तृत हैं । यद्यपि अभी दुःख का समय श्रा गया है तब भी भली-भाँति पोषण करते हैं ।' ( श्लोक १०८ - ९ )
यह गुणगान श्रेष्ठी धन के कानों में पहुँचा । वह सोचने लगा – ‘किसने मेरी भर्त्सना की ! मेरे साथ कौन दुःखी है ! अरे हाँ - हमारे साथ जो प्राचार्य धर्मघोष आए थे वे तो केवल वही भिक्षा ग्रहण करते हैं जो न उनके लिए बना है, न बनाया गया है । कंदमूल का तो स्पर्श भी नहीं करते । इस दुःसमय में न जाने उनकी क्या अवस्था हुई है ? राह में सारी व्यवस्था मैं करूँगा कहकर, ग्राश्वासन देकर मैं ले आया पर उन्हें मैंने एक बार याद भी नहीं किया । अब उसके पास जाकर अपना मुँह कैसे दिखाऊँ ? फिर भी आज उनके पास जाऊँगा और उनका दर्शन कर स्वयं का पाप-प्रक्षालन करूँगा । कारण इसके अतिरिक्त सब प्रकार की वासनाओं के परित्यागी उन महात्मा की मैं क्या सेवा कर सकता हूँ ?' इस प्रकार विचार करते हुए श्रेष्ठी को रात्रि का चतुर्थ याम भी द्वितीय याम लगने लगा । आखिर रात्रि प्रभात में परिणत हुई । श्रेष्ठी नवीन वस्त्रालंकारों से भूषित होकर विशेष - विशेष व्यक्तियों को साथ लिए आचार्य की कुटो की ओर अग्रसर हुए । कुटी पर्णपत्रों से प्राच्छादित थी । घास की दीवालें थीं । उसकी बनावट इस प्रकार थी जैसे कपड़े पर कसीदे का काम किया गया है। जिस भूमि पर वह कुटी बनी थी वह जीवरहित थी ।
( श्लोक ११०-१८)
वहाँ उसने आचार्य धर्मघोष को देखा । देखकर उसे ऐसा लगा कि श्राचार्य ने पाप रूप समुद्र को प्रशमित कर लिया है । वे मोक्ष के मार्ग स्वरूप हैं. धर्म के स्तम्भ है, तेज के प्राश्रय और कषाय रूप गुल्म के लिए हिमरूप हैं, लक्ष्मी के कंठाभरण, संघ के अद्वैत भूषण, मुमुक्षुत्रों के लिए कल्पवृक्ष रूप, तपस्या के प्रत्यक्ष अवतार, मूर्तिमान् ग्रागम और तीर्थ परिचालनकारी तीर्थंकर स्वरूप हैं ।
( श्लोक ११९-१२२)
आचार्य के पास और भी अनेक मुनि अवस्थान कर रहे थे । उनमें कोई ध्यान में निरत था, किसी ने मौन धारण कर रखा था ।