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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
दुःखी बनाया । मैंने एक कोमल कली अपने पैरों तले रौंद डाली। इन विचारों को मन से निकालने का उसने बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वह करुण दृश्य नजरों से ओझल होता ही न था।
राह में वृक्ष की छाया में एक जैनमुनि अपने शिष्य समूह के साथ शांत भाव से विराजमान थे। उनकी मुखमुद्रा देखकर अश्वारोही को कुछ शांति मिली। उसने सोचा, कि क्यों न अपने मन की वेदना, अपने मन का द्वन्द्व, इनके समक्ष रक्खू । घोड़े से उतरा, घोड़े को वृक्ष से बांधा और मुनि के समक्ष जाकर नमन करके बैठ गया।
उसे उदास और खिन्न देखकर संत प्रेम से बोले-"वत्स, तुम चिंतामग्न दिखाई देते हो । कहां से आये हो और कहां रहते हो?"
"महाराज, मैं पड़ोस के ग्राम का जागीरदार हूँ । शिशोदिया क्षत्रिय हूँ। हम और हमारे पूर्वज सदा से शिकार करते आये हैं। आज भी मैं शिकार पर गया था। मृगशावक का शिकार किया, पर उसकी मां का करुणमुख देखकर मेरे मनमें भाव जगे कि मैंने जो किया, वह ठीक नहीं किया। आप ही बताइए कि मैंने यह कुल-परम्परा से चला आया आखेट-कर्म करके ठीक किया या नहीं "?
मुनि शांत-गंभीर स्वर में बोले, "वत्स, तुम्हारे चित्त में जो हलचल मची है वह ठीक है। सभी जीव सुख से जीना चाहते हैं । कोई भी मरना नहीं चाहता। हम भी मृत्यु और दुःख नहीं चाहते । हमारे शिशु के प्राण कोई ले तो हमें जो वेदना होगी वही उस मृगी को हुई । उसके स्थान पर हम हैं ऐसी कल्पना करके इस निंद्य कर्म का त्याग करना ही उत्तम है।"
"पर महाराज, यह तो क्षत्रियों का धर्म माना जाता है।"
"वत्स, क्षत्रिय का धर्म है, दूसरों की रक्षा करना। दूसरों को रक्षा करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन करना। यही सच्चे वीरों