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नगरसेठ लक्ष्मीचन्द
आमदनी से एक लाख, भरुच की आमदनी से पचास हजार, वीरमगाँव से पैंतालीस हजार और नमक की आय से तीस हजार और शेष अन्य आमदनी से यों साढ़े पाँच लाख रुपयों की पूर्ति करने को लिखा था ।
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किन्तु यह परिस्थिति बदल गई। मुराद को मथुरा में कैद किया गया यह मालूम होने पर लक्ष्मीचन्द तथा उनके भाइयों ने सेठ शांतिदास के समक्ष समस्या रखकर सलाह मांगी कि क्या किया जाय ?
सेठ शांतिदास, जो मुगलों की राजनीति और औरंगजेब के स्वभाव से परिचित और अनुभवी थे, उन्होंने पुत्रों से कहा – 'ऋण देना अपना व्यवसाय ही है । फिर तुम लोगों ने मुराद को ऋण देने में तीर्थों की रक्षा के लिए फरमान प्राप्त किये थे । सो तो ठीक ही था पर अब तो वह कैद में है । जहाँ तक औरंगजेब के स्वभाव को जानता हूँ वह दीर्घद्वेषी और दुष्ट है। मुराद को वह कैद से मुक्त करे यह सम्भव नहीं लगता । वह इस बात को भली-भांति जानता है कि हमने मुराद को सहायता की है और वह हमें उसके पक्ष का माने यह भी स्वाभाविक है । इसलिए अपना धर्म और सम्पत्ति दोनों के लिए यह महान् संकट है । औरंगजेब अत्यन्त असहिष्णु, अन्य धर्मों के प्रति द्वेष रखने वाला और उन्हें हानि पहुँचाने वाला है । इसलिए हमारे लिए बड़ी कसौटी का समय है ।
'पिताजी, आपका कथन योग्य है । औरंगजेब आप कहते वैसा ही है । जो कुछ हुआ उसमें क्या मार्ग निकालें कि जिससे उसको नाराजी होकर अपने तीर्थों और सम्पत्ति दोनों की ही रक्षा हो । आप अनुभवी हैं इसलिए आप से मार्ग-दर्शन लेने आये हैं ।' पुत्रों ने कहा ।
सेठ शांतिदास बोले- 'मुझे अपनी सम्पत्ति से मन्दिरों और तीर्थों की चिन्ता अधिक है । अपना मुराद को दिया हुआ कर्ज मिले या न मिले पर मन्दिरों को कैसे बचाया जाय यही समस्या सबसे बड़ी है ।