Book Title: Tirthrakshak Sheth Shantidas
Author(s): Rishabhdas Ranka
Publisher: Ranka Charitable Trust

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Page 55
________________ ४६ तीर्थरक्षक सेठ शान्तीदास सेठ बोले- मैं जानता हूँ । लेकिन एक बार झुकने पर हम पर वह सवार हो जावेगा। वह नासमझ नौजवान है । उसे मैं मनचाहा जुल्म करने नहीं दूंगा। महाजन बोले-'लेकिन शाही फौज का मुकाबला करना क्या गुनाह नहीं समझा जावेगा? सत्ता के आगे जोर क्या ?' सेठ बोले-'मेरे हाथ लम्बे हैं, मैं इसका सामना कर सकता हूँ।' महाजनों ने कहा-'यह तो हम जानते हैं । लेकिन आपका पहला फर्ज तो शहर को बचाना है, इसके लिए आप कोई ठोक रास्ता लें।' सेठ ने कहा-'लेकिन वह तो जिद्दी आदमी है। मैं उसके सामने झुकना नहीं चाहता। वृद्ध साकरचन्द ने पूछा-'यदि कोई बीच का रास्ता निकले तो?' नगरसेठ ने कहा-'आप क्या सुझाव देते हैं ?' साकरचन्द बोले-'आप अपनी फौज लेकर अहमदाबाद से बाहर चले जाय । वहाँ सूबेदार लड़ने आवे तो आप अपनी वीरता दिखायें। वहां आपको कोई दूसरा उपाय करना हो करें, लेकिन शहर को बचाया जाय।' नगरसेठ चिन्तन करने लगे-'लेकिन मेरी हवेली का कब्जा लेकर उसकी वह तोड़-फोड़ करे तब ।' महाजन बोले-'हम उसे समझावेंगे कि हवेली और मिल्कियत को हानि न पहुंचावे, फिर भी आपका नुकसान हो और शहर बचता हो तो आपको बचाना चाहिए। आपको अपनी हानि हमारे लिए बर्दाश्त करनी चाहिए।' सेठ बोले-'ठीक है । आप लोगों के लिए मैं बर्दाश्त करूंगा।'

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