Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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जो सूत्र और अर्थका ज्ञाता है, स्वयं स्वाध्यायमें प्रवृत्त है तथा अन्यको स्वाध्यायमें प्रवृत्त करता है, और जो जोवादि तत्वोंका श्रद्धानी है, हिंसादि पंचपापोंसे निवृत्त है, जो व्रतोपवास करनेवाला है, रसोंका परिस्थागी है, योगसाधक है, कष्टसहिष्णु है, तपस्वी है, एकान्त स्थानमें रहकर ध्यानादि करनेमें संलग्न है-वह आचार्य है। आचार्य श्रुताराधना और तपाराधनाके लिए अपनी शक्तिका पूर्ण उपयोग करता है ।
इस प्रकार आग्रयों में आचार्यके स्वरूप, महत्व, कर्त्तव्य एवं साधनामार्ग पर विचार किया गया है। आचार्यके स्वरूप अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं:
:
१. निर्विकल्प स्वरूपाचरणका आराधक ।
२. चतुर्दश विद्याओं में प्रवीण ।
३. आचासंगका ज्ञाता ।
४. एकादश अंगका पाठी ।
५. स्वसमय --- स्व सिद्धान्तका वेत्ता ।
६. परसमय - विभिन्न दर्शन- सिद्धान्त और परम्पराओंका ज्ञाता ।
७. तत्वोपदेशक ।
८. शास्त्र- प्रणेता --- करुणाबुद्धिसे संसार के प्राणियोंके हितार्थ तीर्थकरवाणीको लिपिबद्ध कर विभिन्नविषयक ग्रन्थोंका कर्त्ता ।
श्रेष्ठ देश, कुल और जाति से शुद्ध 1
९.
१०. सोम्यमूत्ति ।
११. विविध दिशाओंसे प्राप्त अनुभूतियोंको मूर्तरूप दे बौद्धिक और भावात्मक विचारधाराओंका व्याख्याता ।
१२. समयानुसार उत्पन्न समस्याओंका परम्परा के आलोक में साधक बाधक और प्रतिक्रियात्मकरूपमें समाधान प्रस्तुतकर्ता |
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आचार्य प्राचीन परम्पराओंके परिवेशमें जीवनका अध्ययन करता है। वह स्वयं आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए शिष्योंको आदर्श जीवन यापनकी ओर प्रेरित करता है । इस क्रममें जब परिस्थितियोंकी प्रतिक्रिया होने लगती है, तब वह पुरातन धारणाओंको नवान रूपमें "नद्याः नवघटे जलम् " के समान अभिव्यक्त करता है । जिस प्रकार बीज जबतक कागजको पुड़ियामें बंधा रहता है, तब तक वह फलता फूलता नहीं । किन्तु जब वही बीज उर्वरा भूमिमें पड़ जलवायुका सम्पर्क प्राप्त करता है, तो उसमें रंग-बिरंगे पुष्प प्रस्फुटित हो जाते हैं। इसी प्रकार आचार्य भी अपनी मौलिक प्रतिभा और साधना के कारण
४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा