Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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इसप्रकार पांचों अधिकारों में कुल १८२४ गाथाओं के स्थान पर १९५८ गाथाएँ हो गई है।
जो निम्नतालिका से स्पष्ट है
महाधिकार
प्रथम सम्पादित संस्करण की कुल गाथाएं
प्रस्तुत संस्करण में
माषाएँ
नवीन गाथाभों की क्रम संख्या
पंचम महाधिकार
३२३
१७८, १८७-(२)
xxx २४२, २७७, १०८, ५३५, ५६३%=(५)
३०६, ३२१, ३१९ =(२३)
सप्तम
६१६
६२४
पष्टम
७०३
७२६
नयम
,
८२
१८, १९, २०, २१-(४)
प्रादुर संस्करण में सादे पाया निर को निर्दिष्ट करने के लिये उपशीर्षकों की योजना की गई है और तदनुसार ही विस्तृत विषयानुक्रमणिका तैयार की गई है। (क) पंचम महाधिकार : तिर्यग्लोक
इस महाधिकार में कुल ३२३ गायाएं हैं, गद्यभाग अधिक है। १६ अन्तराधिकारों के माध्यम से विर्यश्लोक का विस्तृत वर्णन किया गया है। महाधिकार के प्रारम्भ में चन्द्रप्रभ मिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। अनन्तर स्थाबरलोक का प्रमाण बताते हुए कहा गया है कि जहां तक आकाश में धर्म एवं मर्म द्रग्स के निमित्त से होने वाली जीव और पुद्गल की गतिस्थिति सम्भव है, उतना सब स्थावर मोक है। उसके मध्य में सुमेरू पर्वस के मूल से एक लाख योजन ऊँचा और एक राजू लम्बा चौड़ा तिर्यक असलोक है जहाँ तिर्यञ्च घस जीव भी पाये जाते है।
तिलोक में परस्पर एक दूसरे को चारों ओर से रेष्टित करके स्थिस समवृस असंख्यात बीप समुद्र हैं। उन सबके मध्य में एक लाख पोजन विस्तार बाला जम्बूद्वीप नामक प्रपम द्वीप है। उसके चारों मोर दो नास योजन विस्तार से संयुक्त लवण समुद्र है । सके आगे दूसरा दीप और फिर दूसरा समुद्र है यही क्रम अन्त तक है। इन द्वीप समुद्रों का विस्तार उत्तरोतर पूर्व पूर्व की अपेक्षा दूना-दूना होता गया है। यहाँ प्रन्थकार में पादि और पन्त के सोलह-सोलह द्वीप समुद्रों के नाम भी दिये हैं। इनमें से प्रादि के मढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों की प्ररूपणा विस्तार से चतुर्थमहाधिकार ( ति०प० द्वितीय खण्ड ) में की जा चुकी है।
इस महाधिकार में बाठ, ग्यारहवें और तेरहवें द्वीप का कुछ विशेष वर्णन किया गया है, अन्य दोषों में कोई विशेषता न होने से उनका वर्णन नहीं किया गया है । आठवें नन्दीश्वर द्वीप के विन्यास के बाद बताया गया है कि प्रतिवर्ष भाषाढ़, कार्तिक पोर फाल्गुन मास में इस द्वीप के बावन जिनालयों की पूजा के लिये भवनवासी आदि चारों प्रकार के देव शुक्लपक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक रहकर बड़ी भक्ति करते है। कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यत्तर पश्चिम में बौर ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूर्वाल, अपराल, पूर्वरात्रि व