Book Title: Terapanthi Hitshiksha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Abhaychand Bhagwan Gandhi

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Page 5
________________ परमगुरुश्रीविजयधर्मसूरिभ्यो नमः । किञ्चिद् वक्तव्य. 'मुण्डे मुण्डे मतिमिन्ना' संसारमें यह सामान्य लोकोक्ति समझी जाती है, परन्तु इसके गूढ रहस्यका जब पता लगाते हैं, तब मालम होता है कि-यह उपर्युक्त मामूली लोकोक्तिका ही परिणाम है कि-संसारमें दिन प्रतिदिन नये २ पंथ-मजहब उत्पन्न होते ही रहते हैं, और नष्ट भी होते जाते हैं । संसारमें ऐसे अनेकों पदार्थ हैं, जिनको समझना, अल्पज्ञोंकी बुद्धिसे नहीं हो सकता । और इसी लिये तो हमारे ज्ञानी-ऋषि-महात्मा लोग कह गये हैं कि-' सर्वज्ञके पचनोंपर तुम विश्वास रक्खो'। हां इतनी आवश्यकीय बात है किहमारे आगम-हमारे सिद्धान्त सर्वज्ञभाषित हैं या कि नहीं ? इसकी प्रथम हमें अवश्य प्रतीति होनी चाहिये । और इस प्रतीतिके होनेमें, उनके वचनोंकी सत्यताको समझना यही परम कारण कहा जा सकता है। लेकिन ठीक है, जब मनुष्यमें अपनी मान्यता-पूजनाकी अभिलाषाका आवेग अमर्यादित हो जाता है, तब वह सर्वज्ञके वचनों को झूठे दिखलानेमें किसी प्रकारका डर नहीं रखता। हमारे शुद्ध सनातन जैनधर्ममें, आजपर्यन्त जितने पंथ निकले हैं, उन सम्भके उत्पादकोंके चरित्रोंको जब हम देखते हैं, तब हमें साफ २ जाहिर होता है कि-उपर्युक्त कारणसे ही उन्होंने नये २ ढांचे खडे किये हैं। और संसारके बहुतसे लोग कैसे भोले होते हैं, यह तो पाठक, अच्छी तरह जानते ही होंगे कि, उनको यदि यह कहा जाय कि-'देखो,ईके छिद्रमेंसे शत हाथी निकल गये और जब सौवाँ हाथीं निकलने लगा, तब वह पूंछमें जाके अटक गया, तो भी वे 'जी! हां 'ही परते

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