Book Title: Tat Do Pravah Ek Author(s): Nathmalmuni Publisher: Adarsh Sahitya Sangh View full book textPage 7
________________ नहीं हो सकता । दो तटों के मध्य में प्रवाहित होना ही एकता है और अपनी भुजाओं से प्रवाह का आश्लेष किए रहना अनेकता है । मैं एकता को अनेकता के भुज पाश से आबद्ध पाता हूं, इसीलिए हर कार्म में आचार्यश्री तुलसी का आशीर्वाद देखता हूं और उनके चरणों में कृतज्ञता के दो पुष्प उपहृत करता हूं । मैं अनेकता को एकता से संवलित पाता हूं, इसीलिए आत्मीय भावों को अनात्मीय जगत् में संप्रेषित करता हूं । इस संप्रेषण कार्य में मुनि दुलहराजजी का भी योग है । मैं अचल और चल के योग में अनुयोग देखता हूं, वही मेरे समाधान की पृष्ठभूमि है । - मुनि नथमल जोधपुर २५ मार्च, १६६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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