Book Title: Tark Sangraha Author(s): Sudarshanlal Jain Publisher: Siddha Saraswati Prakashan View full book textPage 8
________________ 10] [ तर्कसंग्रहः विशेषाः ] [11 क्योंकि कृष्णत्व में मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं आदि का भी संग्रह होने से सांकर्य दोष है। [कियन्तो विशेषाः ? ] नित्यद्रव्यवृत्तयो विशेष स्त्वनन्ता एव / अनुदाद-[ विशेष कितने हैं ? ] केवल नित्य द्रव्यों (पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणओं तथा आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये सभी नित्य द्रव्य माने जाते हैं ) में रहने वाले विशेष अनन्त ही हैं। दर्शन ( 1213) में बुद्धिसापेक्ष बतलाया है-'सामान्य विशेष इति बुद्धधोक्षम् / ' कगाद के बुद्धि सापेक्ष सामान्य और विशेष से प्रस्तुत मामान्य और विशेष पदार्थ भिन्न हैं / अतः भ्रम नहीं होना चाहिए। जाति और उपाधि में अन्तर---अखण्ड और सखण्ड के भेद से सामान्य दो प्रकार का है। अखण्ड सामान्य जाति है और सखण्ड सामान्य उपाधि है। द्रव्यत्व, कर्मत्व, घटत्व आदि जातियाँ हैं। अन्धत्व, दण्डित्व आदि उपाधियाँ हैं। उदयनाचार्य ने निम्न कारिका में जाति बाधक छ: कारण दिए हैं, जिनके कारण आपाततः प्रतीत होने वाला एक सामान्य गुण जाति नहीं कहलाता है व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं संकरोऽथानवस्थितिः।। रूपहानिरसम्बन्धी जातिबाधकसंग्रहः / / (1) व्यक्तरभेदः-एक ही पदार्थ के होने पर जाति नहीं होती, जैसे--आकाशत्व / (2) तुल्यत्वम्-पर्यायवाची पदार्थों की पृथक्पृथक जाति नहीं होती, जैसे घटत्व और कलशत्व में दो अलग-अलग जातियो नहीं होती हैं।। 3 संकरः -- 'जन सामान्य गुणों में परस्पर साङ्कय हो वे जाति नहीं हैं, जैसे-भूतत्व एव मूर्तत्व / 'आकाश' भूत है परन्तु मूर्त नहीं। मन' पूर्त है परन्तु भूत नहीं। आकाशातिरिक्त शेष चार ( पृथिवी, अर, तेज और वायु) भूत भी हैं और भूत भी हैं।(४ अनस्थिति:-- जाति की भी जाति मानने पर अनवस्था / दोष होगा, जैसे-घटत्वत्व। (5) रूपहानिः --विशेष की विशेषत्व जाति मानने पर विशेष के स्वरूप की हानि होगी।। 5) असम्बन्ध --- जो परस्पर असम्बद्ध हों उनकी भी जाति नहीं होती। जैसेसमवायत्व। इस तरह जाति एक विशेष प्रकार का तत्व है जो उक्त दोषों से रहित स्थलों में ही होता है। इसके अतिरिक्त उपाधि वह है जो अनेक व्यक्तियों में तो रहती हो परन्तु सांकर्यादि दोषों से युक्त हो। जैसे - मनुष्यत्व एक जाति है परन्तु कृष्णत्व उपाधि है ( जाति नहीं) ख्या -विशेष पदार्थ की महत्ता के कारण ही यह दर्शन वैशेपिक दर्शन' कहा जाता है / कणाद ने वैवोषिक दर्शन में इस पर विचार करते हुए उसे अत्य' (लन्यत्रान्वेभ्यो विशेषेभ्यः) कहा है जिससे यह विशेष पदार्थ परमाण आदि नित्य द्रव्यों / अन्त्य ) में रहता है। उनका कहना है कि घट-टादि का सजातियों एवं विजातियों में परस्पर भेद ती अवयव-भेद से किया जा सकता है परन्तु निरवयव परमाणुओं के परस्पर भेद को बतलाने के लिए विशेष की आवश्यकता होती है। विशेष परस्पर स्वतः भिन्न हैं। अत: उनमें परस्पर भेद के लिए किसी आय भेदक तत्त्व की आवश्यकता न होने से अनवस्था दोष का भी प्रसङ्ग नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सावयष द्रव्यों में विशेष मानने की काई आवश्यकता नहीं है। विशेष को नित्यद्रव्यवृत्ति कहा है अर्थात् ये विशेष प्रथिवी, जल, तेज और वायू के परमाणुओं में तथा आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन (मन परमाणु रूप माना गया है ) इन नित्य द्रव्यों में रहते हैं। प्रत्येक नित्य पदार्थ में पृथक-पृथक रूप से रहने के कारण ये विशेष संख्या में अनन्त हैं। नध्य नैयायिक, मीमांसक और वेदान्ती इस विशेष को नहीं मानते हैं।Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65