Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 20
________________ 34 ] [ तर्कसंग्रहः केवल अपने-अपने गुण एवं तद्गत जाति को ही ग्रहण करती हैं। गन्ध केवल पृथिवी में है। गुलाबजल आदि की गन्ध पृथिवी की गन्ध है, जल की नहीं। [4. स्पर्शस्य किं लक्षणं, के च भेदाः 1 ] त्वगिन्द्रियमात्रग्राह्यो गुणः स्पर्शः / स च त्रिविधः-शीतोष्णानुष्णाशीत भेदात् / पृथिव्यप्तेजोवायुवृत्तिः / तत्र शीतो जले / उष्णस्ते- ' जसि / अनुष्णाशीतः पृथिवीबायोः / स्पर्शः रूपादिचतुष्टयं च ] [ 35 [रूपादिचतुष्टयं कुत्र पाकजमपाकजं वा कुत्र?] रूपादिचतुष्टयं पृथिव्यां पाकजमनित्यं च / अन्यत्राऽपाक नित्यमनित्यं च / नित्यगतं नित्यम् / अनित्यगतमनित्यम् / ___अनुवाद-[रूपादि चार गुण कहाँ पाकज हैं और कहाँ अपाकज पाकज (तेज के संयोग से उत्पन्न होने वाले ) हैं तथा अनित्य हैं। अन्यत्र (पृथिवी से भिन्न जल, तेज और वायु में) अपाकज हैं (अर्थात् जल में रूप, रस और स्पर्श, तेज में रूप और स्पर्श तथा वायु में स्पर्श गुण श्ववाकज है) तथा नित्य और अनित्य हैं / नित्य. गत ( जल आदि के परमाणुओं में रहने वाले ) रूपादि नित्य हैं तथा अनित्यगत (द्वघणुकादि में रहने वाले ) रूपादि अनित्य हैं। ___ अनुवाद-[ 4. स्पर्श का क्या लक्षण है और उसके कितने भेद हैं?]-त्वगिन्द्रिय (न्वचा) मात्र से ग्रहण किए जाने वाले गुण को 'स्पर्श' कहते हैं। शीत (ठंडा ), उष्ण (गर्म ) और अनुष्णाशीत (न अधिक ठंडा न अधिक गर्म) के भेद से वह स्पर्श गुण तीन प्रकार का है। पृथिवी, जल, तेज और वायु में स्पर्श गुण पाया जाता है। उनमें जल में शीत स्पर्श, तेज में उष्णस्पर्श, पृथिवी और वायु में अनुष्णाशीत स्पर्श पाया जाता है। ___व्याख्या-जिस गुण का प्रत्यक्ष मात्र त्वचा इन्द्रिय से होता है . उसे स्पर्श गुण कहते हैं। यहाँ 'मात्र' पद का ग्रहण संख्यादि के वारणार्थ है तथा 'गुण' पद का ग्रहण स्पर्शत्व जाति के वारणार्थ किया गया है। जाति-घटित लक्षण करने पर परमाणु में अव्याप्ति नहीं होगी- 'चक्षरग्राह्यत्वग्ग्राह्यगणत्वव्याप्यधर्मवत्त्वम्'। जो लोग वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष मानते हैं उनका भी जातिघटित लक्षण से निराकरण हो जायेगा। चक्षरग्राह्य कहने से संयोगत्व आदि जातियों का निराकरण हो जायेगा। स्पर्श तीन प्रकार है-शीतल, उष्ण और अनुष्णाशीत। उष्णस्पर्श तेज में, शीतलस्पर्श जल में और अनुष्णाशीत स्पर्श पृथिवी तथा वायु में है। अनुष्णाशीत स्पर्ग पृथिवी का पाकज है और वायु का अपाकज / चित्र स्पर्श नहीं होता है। अर्थात् रूपादि 4 गुणों का परिवर्तन जब तेज के संयोग से होता है तो उसे पाकज कहते हैं और जब बिना तेज के संयोग के स्वाभाविकरूप से रूपादि का परिवर्तन होता है तो उसे अपाकज कहते हैं। पृथिवी में रूपादि का परिवर्तन तेज के मंयोग से होता है, अतः पृथिवीगत रूपादिचतुष्टय को पाकज कहा है। पाकज होने से अनित्य माना है अथवा अनित्य, स्पष्ट नहीं किया है। संभवतः वे अनित्य ही मानना चाहते हैं। जलादिगत रूपादि के परिवर्तन को अपाकज माना है क्योंकि जलादि को अनेक बार क्यों न तपाया जाए उनके रूपादि में परिवर्तन नहीं होता है। तपाये गये जलादि में जो उष्णता देखी जाती है वह औपाधिक है क्योंकि उसमें तेज के परमाणुओं का सम्मिश्रण हो गया है। जलादि के परमाणगत रूपादि नित्य हैं और द्वघणुकादि के रूपादि अनित्य हैं। पृथिवी के रूपादि की परावृत्ति रूप पाक के सन्दर्भ में दो मत प्रचलित हैं

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