________________ [ तर्कसंग्रहः श्रीणि लिङ्गानि ] [83 अनुवाद-[ लिङ्ग कितने प्रकार का है ? 1 लिङ्ग तीन प्रकार का है-अन्वयव्यतिरेकि, केवलान्वयि और केवलव्यतिरेकि / [अन्वयव्यतिरेकि लिङ्ग का क्या स्वरूप है? 1 जिस लिन में अन्बय और व्यतिरेक दोनों व्याप्तियाँ हों उसे अन्वयव्यतिरेकि कहते हैं / जैसेआग के साध्य होने पर 'धूमवत्त्व' / 'जहाँ धूम है वहाँ आग है, जैसे रसोईघर' यह अन्वयव्याप्ति है। 'जहाँ आग नहीं है वहाँ धूम भा. नहीं है, जैसे सरोवर' यह व्यतिरेकव्याप्ति है। [ केवलान्वयि लिङ्ग / का क्या स्वरूप है ? ] जिसमें केवल अन्वयव्याप्ति हो उसे केवलात्वयि कहते हैं। जैसे-घड़ा अभिधेय ( वाच्य) है क्योंकि वह प्रमेय है, यथा पट / यहाँ प्रमेयत्व और अभिधेयत्व की व्यतिरेक.. व्याप्ति नहीं है क्योंकि सभी विषय प्रमेय एवं अभिधेय हैं। [ केवलव्यतिरेकि लिङ्ग का क्या स्वरूप है ?] जिसमें केवल व्यतिरेकव्याप्ति हो वह केवलव्यतिरेकि है। जैसे-पृथिवी अन्य से भिन्न है, क्योंकि गन्धवतीहै, जो इतर से भिन्न नहीं है वह गन्धवाला नहीं है, यथा जल / यह वैसी ( जल के समान ) नहीं है। अतः वैसी (गन्धहीन) नहीं है। यहाँ 'जो गन्धवाला है वह इतर से भिन्न है' ऐसा अन्वयदृष्टान्त नहीं है क्योंकि पृथिवीमात्र पक्ष है। व्याख्या-लिङ्ग (अनुमापकहेत) तीन प्रकार के हैं--अन्वय-1 व्यतिरिकि, केवलान्वयि और केवलव्यतिरेकि। इन्हें ही क्रमशः विधि-निषेधपरक, विधिपरक एवं निषेधपरक भी कह सकते हैं। तीनों के स्वरूप निम्न हैं (1) अन्वयव्यतिरेकि--वह हेतु अन्वयव्यतिरेकि कहलाता है जिसमें साध्य के साथ अन्वयव्याप्ति तथा व्यतिरेकव्याप्ति दोनों हों। जैसे---'पर्वतो वह्निमान् धूमवत्वात्' अर्थात् पर्वत आग वाला है, धूमवाला होने से' इस प्रसिद्ध स्थल में 'धूमवत्त्व' हेतु अन्वयव्यतिरेकि है क्योंकि इसकी साध्य के साथ दोनों प्रकार की व्याप्तियां संभव हैं। जैसे-'जहाँ धूम है वहाँ आग है, जैसे रसोईघर' यह अन्वय व्याप्ति है। इसमें हेतु के रहने पर साध्य का सद्भाव सिद्ध किया जाता है। यहाँ हेतु व्याप्य होता है और साध्य व्यापक / इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। जैसे-देवदत्तः मर्त्यः, मनुष्यत्वात्, यो यो मनुष्यः सः स मर्त्यः, यथा यज्ञदत्तः, यत्र यत्र माभा मनुष्यत्वाभावः, यथा ईश्वरः / (2) केवलान्वयि-जिस हेतु में साध्य के साथ व्यतिरेकव्याप्ति नहीं पाई जाती, केवल अन्वयव्याप्ति होती है, वह हेतु केवलान्वयि कहलाता है। जैसे-'घटोऽभिधेयः प्रमेयत्वात्, पटवत्' अर्थात् घट अभिधेय है क्योंकि वह प्रमेय है. जैसे पट / यहाँ 'प्रमेयत्व' हेतु केवलान्वयि है क्योंकि 'जहाँ जहाँ प्रमेयत्व है वहाँ वहाँ अभिधेयत्व भी है, जैसे-पट' यह अन्वयव्याप्ति तो बन जाती है परन्तु जहाँ जहाँ अभिधेयत्वाभाव है वहाँ वहाँ प्रमेयत्वाभाव है' यह व्यतिरेकव्याप्ति नहीं बन पाती क्योंकि प्रमेयत्व और अभिधेयत्व सभी पदार्थों में है और उसका अभाव कहीं नहीं है, फलस्वरूप व्यतिरेकव्याप्ति नहीं है। अतः इस 'प्रमेयत्व हेतु को केबलान्वयि कहेंगे / दीपिका टीका में केवलान्वयिसाधकं लिङ्गं केवलान्वयि / अत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं केवलान्वयित्वम् कहा है, अर्थात् जिसका साध्य केवलान्वयी हो वह केवलान्वयि लिङ्ग कहलाता है, किञ्च केवलान्वयि साध्य वही होता है जिसका अत्यन्ताभाव कहीं भी न मिले। प्रस्तुत प्रमेयत्व हेतु का साध्य जो 'अभिधेयत्व' है उसका अत्यन्ता* भाव कहीं नहीं है, अतः प्रमेयत्व हेतु केवलान्वयि है। वस्तुत्व, वाच्यत्व, शेयत्व आदि (गगनाभाव आदि ) भी केवलान्वयि हेतु हैं। (3) केवलव्यतिरेकि-केबल व्यतिरेकव्याप्ति वाले लिङ्ग को केवलव्यतिरेकि कहते हैं। यहाँ अन्वयव्याप्ति संभव नहीं है। जैसे'पृथिवी इतरभेदवती, गन्धवत्त्वात्' (पृथिवी पृथिवीतर-जलादि इतर द्रव्यों से भिन्न है, गन्धवती होने से ) यहाँ अन्वयव्याप्ति का स्वरूप होगा 'यत्र यत्र गन्धवत्त्वं तत्र तत्र पृथिवीतरभेदः' (जहाँ जहाँ गन्धवत्त्व है वहाँ वहाँ पृथिवीतर भेद है)। यह अन्वयव्याप्ति