Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 47
________________ हेत्वाभासाः] [89 भी कहते हैं ) है। साधारण, असाधारण और अनुपसंहारी के भेद से वह तीन प्रकार का है। इनमें ( सव्यभिचार हेत्वाभास के तीन भेदों में) जो साध्याभाव के अधिकरण में रहने वाला है वह साधारण अनैकान्तिक है। जैसे 'पर्वत आग वाला है, प्रमेय ( ज्ञेय ) होने से' यहाँ प्रमेयत्व हेतु आग के अभाववाले अधिकरण सरोवर में रहने से साधारण अनैकान्तिक है। [ असाधारण का क्या लक्षण है ? ] जो सभी सपक्षों तथा विपक्षों में न रहकर केवल पक्ष में रहे उसे असाधारण कहते हैं। जैसे-'शब्द नित्य है, शब्दत्व होने से'। यहाँ शब्दत्व सभी सपक्ष नित्यों (आकाशादि) और विपक्ष अनित्यों (घटादि) में न रहकर केवल पक्ष शब्द में रहता है। [अनुपसंहारी का क्या लक्षण है?] अन्वय और व्यतिरेक के दष्टान्त से रहित अनुपसंहारी है। जैसे-'सब अनित्य है प्रमेयत्व होने से'। यहाँ सब पदार्थों के पक्ष होने से दृष्टान्तस्थल ही नहीं है। 88 ] [ तर्कसंग्रहः किसी एक हेतु में एक से लेकर पाँचों दोष भी हो सकते हैं। जैसे 'वायुर्गन्धवान् स्नेहात्' (वायु में गन्ध है, स्नेह गुण होने से ), यहाँ पाँचों दोष हैं। 'ह्रदो वह्निमान् धूमात्' / सरोवर आगवाला है, धूम होने से ), यहाँ सत्प्रतिपक्ष, स्वरूपासिद्ध और बाधित ये तीन दोष हैं। इसी प्रकार 'पर्वतो धूमवान् वह्नः' (पर्वत धूम वाला है, आग होने से) में साधारण सव्यभिचार और व्याप्यत्वासिद्ध ये दो दोष हैं। आगे के विवेचन से यह सब स्पष्ट हो जायेगा। एक साथ एक ' ' हेतु में एकाधिक दोषों के रहने के कारण सव्यभिचार आदि 5 भेद हेतु के दोष हैं, न कि दुष्ट हेतु के पाँच प्रकार हैं। वैशेषिक मूलतः तीन हेत्वाभास मानते हैं-सव्यभिचार, विरुद्ध और असिद्ध। ये. सत्प्रतिपक्ष और बाधित को आश्रयासिद्ध और सव्यभिचार के अन्तर्गत मानते हैं। [सव्यभिचारस्य किं लक्षणं, कतिविधश्च सः१ ] सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः। स त्रिविधः-साधारणाऽसाधारणानुपसंहारिभेदात् / [साधारणस्य किं लक्षणम् 1] तत्र साध्याभाववद्वृत्तिः साधारणोऽनैकान्तिकः / यथा पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वा- / दिति / अत्र प्रमेयत्वस्य वड्यभाववति हृदे विद्यमानत्वात् / / / [ असाधारणस्य किं लक्षणम् ? ] सर्वसपक्षविपक्षव्यावृतः पक्षमात्रवृत्तिरसाधारणः / यथा शब्दो नित्यः शब्दत्वादिति / शब्दत्वं हि सर्वेभ्यो नित्येभ्योऽनित्येभ्यश्च व्यावृतं शब्दमात्रवृत्ति / [ अनुपसंहारिणः किं लक्षणम ? ] अन्वयव्यतिरेकदृष्टान्तरहितोज्नुपसंहारी। यथा सर्वमनित्यं प्रमेयत्वादिति / / अत्र सर्वस्यापि पक्षत्वाद् दृष्टान्तो नास्ति / अनुवाद-[ सव्यभिचार का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है? ] सव्यभिचार अनैकान्तिक ( सव्यभिचार को अनेकान्तिक व्याख्या-सव्यभिचार को अनैकान्तिक भी कहते हैं। कणाद ने इसे संदिग्ध कहा है क्योंकि इस हेतु से साध्य की सिद्धि और साध्याभाव की सिद्धि दोनों होती हैं / 'साधारणाऽसाधारणाऽनुपसंहार्यन्यतमत्वं सव्यभिचारत्वम्' (साधारण, असाधारण एवं अनुपसंहारी में अन्यतमत्व सव्यभिचार है ऐसा भी लक्षण किया जाता है। इस हेत्वाभास के तीन भेद किए गये हैं १)साधारण अनेकान्तिक--अन्नम्भद्र ने इसका लक्षण बतलाया है-'साध्य के अभाववाले अधिकरण में रहने वाला' ( साध्याभावववत्तिः) / परन्तु इसका तात्पर्य है साध्य के अधिकरणों और साध्याभाव के अधिकरणों में समान रूप से रहने वाला। अतएव इसे पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहने वाला कहा जाता है। साधारण का अर्थ ही है जो सभी स्थलों में रहे। 'साध्याभाव वाले अधिकरण में भी रहना' यही इसका मुख्य निर्णायक तत्त्व है क्योंकि पक्ष और सपक्षवृत्तिता तो सदहेतु में भी आवश्यक है / जैसे-'पर्वतो

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