________________ 90] हेत्वाभासः ] [ 9.10 [ तर्कसंग्रहः वह्निमान् प्रमेयत्वात्' (पर्वत आग वाला है, क्योंकि प्रमेय है)। यहाँ प्रमेयत्व हेतु पक्ष पर्वत, मपक्ष रसोईघर आदि तथा विपक्ष सरोवर आदि में रहने से साधारण अनैकान्तिक है। ऐसा हेतु विपक्ष में भी रहने से अतिव्याप्ति दोष का जनक होता है। अन्य उदाहरण'शब्दो नित्यः प्रमेयत्वात् / विरुद्ध में अतिव्याप्ति-वारणार्थ अन्नम्भट्ट के और विपक्ष बचता ही नहीं है। जैसे-'सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' (सभी अनित्य हैं क्योंकि प्रमेय हैं)। यहाँ 'सर्वम्' में सभी पदार्थ पक्ष बन गये है। लक्षण में केवलान्वयि में अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'अन्वय' पद दिया है तथा केवलव्यतिरेकि में अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'व्यतिरेक' पद दिया गया है। [विरुद्धस्य किं लक्षणम् ?] साध्याभावव्याप्तो हेतुविरुद्धः / यथा---शब्दो नित्यः कृतकत्वादिति / अत्र कृतकत्वं हि नित्यत्वाऽभावेनाऽनित्यत्वेन व्याप्तम् / अनुवाद-[विरुद्ध का क्या लक्षण है? ] जो हेतु साध्य के. अभाव में व्याप्त हो उसे विरुद्ध कहते हैं। जैसे-'शब्द नित्य है, कार्यत्व होने से' / यहाँ कृतकत्व ( कार्यत्व ) हेतु नित्यत्व के अभाव अनित्यत्व से व्याप्त है। 'पक्षवृत्तित्व' जोड़ना होगा। इस तरह पूरा लक्षण होगा--पक्षसपक्षवृत्तित्वविशिष्टसाध्याभाववद्वृत्तित्वं साधारणत्वम् / (2) असाधारण अनैकान्तिक-सपक्ष और विपक्ष में न रहते हए जो केवल पक्ष में रहे वह असाधारण है। पक्ष में रहना और विपक्ष में न रहना यह तो सद्हेतु के लिए आवश्यक है परन्तु सपक्ष में न रहना इसका मुख्य दोषाधायक तत्त्व है। अतः ऐसा हेतु सभी लक्ष्य स्थलों में न रहने से अव्याप्ति दोष का जनक होता है। केवव्यतिरेकि हेतु में सपक्ष होता ही नहीं है, अतः उसके यहाँ रहने और न रहने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। इस तरह असाधारण का अर्थ है 'पक्ष के अतिरिक्त स्थलों में कहीं न रहना' / जैसे- 'शब्दो' नित्यः शब्दत्वात्' ( शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें शब्दत्व ) है। यहाँ शब्दत्व हेतु केवल पक्ष शब्द में ही रहता है, यह न तो सपक्षभूत आत्मादि नित्य द्रव्यों में रहता है और न विपक्षभूत घटादि अनित्य द्रव्यों में रहता है। अन्य उदाहरण-'पृथिवी नित्या गन्धवत्त्वात् गृथिवीत्वाद्वा / जलं निन्य जलत्वात्' आदि। केवलव्यतिरेकि में लक्षण की अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'तद्भिन्नत्व' कहा जाता है 'केवलव्यतिरेकिभिन्नत्वे सति सर्वसमक्षविपक्षव्यावृतत्वे च सति पक्षमात्रवृत्तित्वम् असाधारणत्वम्'। (3) अनुपसंहारी अनैकान्तिक--जिसका न तो अन्वयव्याप्तिग्राहक (सपक्ष) दृष्टान्त मिले और न व्यतिरेकव्याप्तिग्राहक (विपक्ष ) दृष्टान्त मिले 'अन्वयव्यतिरेकदृष्टान्तरहितोऽनुपसंहारी' / इस तरह के स्थल में पक्ष में सभी पदार्थ आ जाते हैं जिससे सपक्ष व्याख्या ... साध्याभावव्याप्तो हेतविरुद्धः' जो हेतू साध्याभावव्याप्त हो अर्थात् जहाँ हेतु रहे वहाँ साध्य का अभाव भी रहे वही विरुद्ध हेत्वाभास (साध्य विरोधी है। सत्प्रतिपक्ष में अतिव्याप्ति' वारणार्थ 'सत्प्रतिपक्षभिन्न पद जोड़ना चाहिए। इस तरह विरुद्ध हेतु से हम जो सिद्ध करना चाहते हैं उमगे उल्टा ही सिद्ध हो जाता है, जैसे- शब्दो नित्यः कृतकत्वात्' (शब्द नित्य है क्योंकि उसमें कृतकत्व है)। यहाँ कृतकत्व (जन्यत्व) हेतु से अनित्यता की सिद्धि हो रही है, न कि नित्यत्व की। इस तरह कृतकत्व हेतु साध्य नित्यत्व से विपरीत अनित्यत्व में व्याप्त होने से विरुद्ध है। अन्तर-(१) विरुद्ध कभी भी सपक्ष में नहीं रहता है जबकि साधारण अनैकान्तिक सपक्ष में भी रहता है। (2) विरुद्ध विपक्ष में रहता है जबकि असाधारण अनेकान्तिक विपक्ष में नहीं रहता है। (3) अनुपसंहारी में व्याप्ति घटित नहीं होती जबकि विरुद्ध में व्याप्तिसाध्याभाव को सिद्ध करने वाली होती है। ( 4 ) सत्प्रतिपक्ष