Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 46
________________ हेत्वभासाः ] ज्ञान तथा तदुत्तरवर्ती लिङ्गपरामर्श को रोक रहा है। अन्वयव्यतिरेकि सद्हेतू पक्षधर्मत्व आदि पाँच रूपों से युक्त होकर ही साध्य को सिद्ध करने में समर्थ होता है। अतः यदि इनमें से किसी एक की कमी होती है तो सामान्यतः पाँच हेत्वाभास होते हैं / जैसे--पक्षसत्त्व के अभाव में आश्रयसिद्ध और स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होंगे। सपक्षसत्त्व के अभाव में असाधारण सव्यभिचार और अनुपसंहारी सव्यभिचार हेत्वाभास होंगे। विपक्षासत्त्व होने पर व्यात्यत्वासिद्ध, विरुद्ध और माधारण सव्यभिचार हेत्वाभास होंगे। प्रत्यक्षादि किसी बलवत्तर प्रमाण से खण्डित होने पर बाधित हेत्वाभास होगा। समान बलवान हेत्वन्तर के रहने पर सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास होता है। उदाहरणसहित हेत्वाभासों के अवान्तर प्रकार निम्न हैं [ तर्कसंग्रहः सपक्ष अन्वयव्याप्ति का दृष्टान्त होता है। अतः हेतु को पक्ष में रहना चाहिए। विपक्ष---जहाँ हमें साध्य के अभाव का निश्चय पहले से ही रहता है। जैसे उक्त अनुमितिस्थल में विपक्ष है 'जलाशय' / व्यतिरेकव्याप्ति का दृष्टान्त विपक्ष ही होता है। अतः हेतु को विपक्ष में न रहने वाला होना चाहिए। [हेत्वाभासाः कतिविधाः 1] सव्यभिचारविरुद्धसत्प्रति-. पक्षासिद्धबाधिताः पञ्च हेत्वाभासाः / अनुवाद-[हेत्वाभास कितने प्रकार के हैं ? ] हेत्वाभास पाँच हैं-सव्यभिचार, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष, असिद्ध और बाधित। व्याख्या-हेतुवदाभासते हेत्वाभासः' जो सद् हेतु तो न हो परन्तु हेतु की तरह लगे ऐसे दोषयुक्त हेतु को हेत्वाभाम कहते हैं। दीपिका में हेत्वाभास का लक्षण दिया है 'अनुमितिप्रतिबन्धकयथार्थज्ञानविषयत्वम्' (अनुमिति के प्रतिबन्धक यथार्थ जान के विषय होने को हेत्वाभास कहते हैं / इसे ही न्यायबोधिनी तथा पदकृत्य में शिष्यशिक्षार्थ 'अनुमितितत्करणाऽन्यतरप्रतिबन्धकयथार्थज्ञानविषयत्वम्' (अनुमिति अथवा उसके करण परामर्श में से किसी एक के प्रतिबन्धक यथार्थज्ञान का विषय होना)। ___ इस तरह जिसके ज्ञान से अनुमति अथवा परामर्श रुक जाए वही है हेत्वाभास दोष। यह नियम है कि किसी वस्तु के ज्ञान के प्रति वहाँ उस वस्तु के अभाव का ज्ञान प्रतिबन्धक होता है। जसे-'ह्रदो वह्निमान् धूमात्' (जलाशय आगवाला है, धूम होने से) में 'जलाशय आग के अभाव वाला है' इस प्रकार का ज्ञान "ह्रदो वह्निमान्' इस अनुमति के प्रति प्रतिबन्धक है। इस तरह यहाँ प्रत्यक्षबाध नामक दोष है। सव्यभिचार नामक दोष अनुमिति का साक्षात् प्रतिबन्धक नहीं है अपितु अनुमिति के करण परामर्श का प्रतिबन्धक है। जैसे धूमवान् वह्नः' में वह्नि हेतु 'धूमाभाव के अधिकरण तप्त लौह पिण्ड में रहता है' ऐसा व्यभिचारज्ञान व्याप्ति हेत्वाभास सव्यभिचारी विरुद्ध सत्प्रतिपक्ष असिद्ध बाधित अनेकान्तिक] (शब्दो नित्यः [प्रकरणसम] [ कालात्ययाकृतकत्वात् ) (शब्दो नित्यः पदिष्ट या थावणत्वात्। सोपाधिक] (वह्निरनुष्णो साधारण असाधारण अनुपसंहारी द्रव्यत्वात् ) (पर्वतो (शब्दो (सर्वमनित्यं वह्निमान् नित्यः प्रमेयत्वात् ) धूमात् ) शब्दत्वात् ) आश्रयासिद्ध स्वरूपा० व्याप्यत्वा० (गगनार विन्दं (शब्दो गुणर- (पर्वतो सुरभि अविन्दत्वात् ) चाक्षुषत्वात् ) धूमवान् वह्न:) /

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