Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 63
________________ अभावः 1 [ 121.. 120 ] [ तर्कसंग्रहः वस्तु जहाँ जिस सम्बन्ध से रहती है वहाँ अभाव भी उसी सम्बन्ध से बतलाया जाता है, अतः प्रतियोगिता भी उसी सम्बन्ध से अवच्छिन्न होती है। चारों अभावों का स्वरूप होगा / / (1) प्रागभाव-तन्तुओं में पट के उत्पन्न होने के पूर्व पट के अभाव को पट-प्रागभाव कहते हैं। तन्तुओं में यह अभाव अनादिकाल से चला आ रहा है। जब तन्तुओं में पट उत्पन्न हो जाता है तो पट-प्रागभाव समाप्त हो जाता है। इस तरह प्रागभाव अनादि तो है परन्तु सान्त है। यहाँ तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से पट के रहने का अभाव बतलाया गया है। पट जो इस प्रागभाव का प्रतियोगि है वह तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहता है। अतः यह समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव हुआ। (2) प्रध्वंसाभाव-तन्तुओं में पट के उत्पन्न होने के बाद जब पुनः तन्तु अलग-अलग हो जाते हैं तो पट का विनाश हो जाता है। इसे ही पट का ध्वंस कहते हैं अर्थात् भग्न तन्तुओं में पट का ध्वंसाभाव हो गया। इस तरह यह अभाव तन्तुओं के संयोग के नाश से उत्पन्न होता है और उत्पन्न होने के बाद हमेशा बना रहता है, अतः इसे सादि और अनन्त कहा है। यहाँ भी प्रतियोगिता समवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न है क्योंकि भग्न तन्तुओं में इसी सम्बन्ध से पटाभाव बतलाया जा रहा है। यदि कोई उन भग्न तन्तुओं पर कोई दूसरा पट लाकर रख दे तब भी पटाभाव वहाँ रहेगा क्योंकि संयोग सम्बन्ध से वहाँ पटाभाव नहीं बतलाया गया है अपितु समवाय सम्बन्ध से बतलाया गया है। अतः सभी अभावों में सम्बन्ध का बड़ा महत्त्व है। यदि कोई उन तन्तुओं को पुनः जोड़ दे तो भी ध्वंसाभाव रहेगा क्योंकि वह नया पट उत्पन्न हुआ है पुराने पट का तो ध्वंस बना ही है। प्रश्न-क्या ध्वंस का भी ध्वंस होता है ? उत्तर-नहीं, ध्वंस का ध्वंस मानने पर वह सद्भाव रूप होगा, जो अभीष्ट नहीं है। (3) अत्यन्ताभाव-इसे नित्य संसर्गाभाव भी कहते हैं। यह न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है, अपितु त्रैकालिक है। प्राचीन नैयायिक वायु में रूप के अभाव ( समवाय सम्बन्ध से) को अत्यन्ताभाव कहते हैं क्योंकि वह त्रैकालिक है। भूतल में जो घटाभाव ( संयोग सम्बन्ध से ) है उसे उत्पत्ति और विनाश वाला (घट हटाने से होने वाला और घट लाकर रखने से नष्ट होने वाला) होने से पृथक् मानते हैं परन्तु नवीन नैयायिक दोनों को नित्य (त्रैकालिक) अत्यन्ताभाव मानते हैं। उनके मत से घट के ले आने पर भी घाटाभाव बना रहता है क्योंकि वह नित्य और व्यापक है। विशेष के" लिए देखें न्यायसिद्धान्तमुक्तावलि आदि ग्रन्थ / (4) अन्योन्याभाव-यह भी नित्य अभाव है परन्तु इसमें प्रतियोगिता तादात्म्यसम्बान्धावच्छिन्ना होती है। पृथक्त्व गुण से इसका भेद है, यह पृथक्त्व गुण के विवेचनप्रसङ्ग में (पृ० 39) कहा जा चुका है। . प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव प्रतियोगी के समवाधिकारण में रहते हैं / अत्यन्ताभाव दो पदार्थों में संसर्ग ( संयोगादि सम्बन्ध ) का और अन्योन्याभाव तादात्म्य का निषेध करता है। मीमांसकों एवं वेदान्तियों। के अनुसार अभाव केवल अधिकरणरूप है। [उपसंहारः] सर्वेषां पदार्थानां यथायथमक्तेष्वन्तर्भा--- वात्सप्तैव पदार्था इति सिद्धम् / काणादन्यायमतयो_लव्युत्पत्तिसिद्धये / अन्नम्भट्टेन विदुषा रचितस्तर्कसंग्रहः / / [इति श्रीमहामहोपाध्यायान्नम्भट्टविरचितस्तर्कसंग्रहः समाप्तः ]

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