Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 60
________________ संस्कारः ] [ 115 / / 114 ] - [ तर्कसंग्रहः होता है। अतः ईश्वर में आत्मत्व जाति के रहने के कारण तथा सुखदुःख की स्वरूपयोग्यता होने पर भी वे उत्पन्न नहीं होते हैं / जो ईनर में आत्मत्व जाति नहीं मानते हैं उनके मत से आत्मत्व जाति केवल जीवों में रहती है। द्रव्य की संख्या दस न हो एतदर्थ वे आन्मा के स्थान पर 'ज्ञानवत्' द्रव्य मानते हैं। वस्तुतः न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को बाद में स्वीकार किया गया है। स्वीकृत नौ द्रव्यों की संख्या का अतिक्रमण न हो इसीलिए यह परिस्थिति उत्पन्न हुई है। [24. संस्कारः कतिविधः तदभेदाश्च किं स्वरूपाः 1 संस्कारस्त्रिविधा-वेगो भावना स्थितिस्थापकश्चेति / वेगः पृथिव्यादिचतुष्टयमनो (-मात्र) वृत्तिः / अनुभवजन्यास्मृतिहेतुर्भावना, आत्मभात्रवृति / अन्यथाकृतस्य पुनस्तदवस्थापादस्थितिस्थापन कटादिपृथिवीवृत्तिः। [इति गुणनिरूपणम् / अनुवाद--[२४. संस्कार कितने प्रकार का है और उसके भेदों के स्वरूप क्या हैं ? ] संस्कार तीन प्रकार के हैं-वेग, भावना और स्थितिस्थापक / वेग पृथिवी आदि चार (पृथिवी, जल, तेज, वायु) तथा मन में रहता है। अनुभव से उत्पन्न तथा स्मृति का कारण भावना है जो केवल आत्मा में रहती है। अन्यथाकृत को पुनः उसी अवस्था में ला देने वाला स्थितिस्थापक है जो चटाई आदि पृथिवी में रहता है। स्थितिस्थापकान्यतमत्वं संस्कारत्वम्' यह संस्कार का लक्षण है जिसे दीपिकाकार ने 'सामान्यगुणात्मविशेषगुणोभयवृत्तिगुणत्वव्याप्यजातिमत्त्वं संस्कारत्वम्' ( सामान्य गुण और आत्मा में रहने वाला विशेषगुण इन दोनों में रहने वाली गुणत्वव्याप्य जाति जहाँ रहती है उसे संस्कार कहते हैं)। वेग और स्थितिस्थापक सामान्य गुण हैं तथा भावना विशेष गुण है। वेग पृथिव्यादि चार तथा मन इन पाँच द्रव्यों में रहता है। भावना केवल आत्मा में रहती है। स्थितिस्थापक चटाई आदि पार्थिव द्रव्यों में रहता है। कुछ लोग पृथिवी आदि चारों द्रव्यों में स्थितिस्थापक को मानते हैं। तीनों के स्वरूप निम्न हैं (1) बेग--"द्वितीयादिपतनाऽसमवायिकारणत्वे सति गुणत्वं वेगत्वम्' (द्वितीय आदि पतन के असमवायिकारण गुण को वेग कहते हैं)। आद्य पतन का असमवायिकारण गुरुत्व गुण है। वेग दो प्रकार का है-कर्मज (कर्म से जन्य) और वेगज ( वेग से उत्पन्न ) / वेग के विना कर्म स्थायी होगा, अतः इसे मानना आवश्यक है। (2) भावना-'अनुभवजन्यत्वे सति स्मृतिहेतुत्वम्' ( अनुभव से उत्पन्न होने वाला और स्मृति का जनक गुण भावना है)। भावना को स्वीकार किए विना स्मरण नहीं हो सकता है। संस्कार से सामान्यतः भावना को ही समझा जाता है। भावना केवला आत्मवत्ति वाला अतीन्द्रिय गुण है। (3) स्थितिस्थापक-'अन्यथाकृतस्य पुनस्तदवस्थापक: स्थितिस्थापकः' (पेड़ों की शाखा आदि को नत करके छोड़ने पर पुनः उन्हें पूर्वस्थान पर पहुँचाने वाला संस्कार स्थितिस्थापक है)। दीपिका में लक्षण दिया है 'पृथिवीमात्रसमवेत संस्कारत्वव्याप्यजातिमत्त्वं स्थितिस्थापकत्वम् / [ गुण निरूपण समाप्त ] [गुण निरूपण समाप्त ] व्याख्या-संस्कार तीन प्रकार का है-वेग, भावना और स्थितिस्थापक / यद्यपि ये तीनों भेद भिन्न-भिन्न स्वभाव के हैं फिर भी इनकी गिनती संस्कार के अन्तर्गत की जाती है। 'वेगभावना

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