Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 59
________________ 112] [ तर्कसंग्रह इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माधर्माः ] [ 113 व्याख्या--सुख सभी प्राणी चाहते हैं और दुःख कोई नहीं चाहता व्याख्या-धर्म और अधर्म ये दोनों अदृष्ट के ही प्रकार हैं। है। दुःखाभाव हो सुख नहीं है क्योंकि सुख भावात्मक गुण है / 'अहं 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वेदशास्त्रोपदिष्ट याग, सुखी', 'अहं दुःखी' (मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ) इस अनुभव से इनकी सत्ता दान. पूजन आदि क्रियाओं से जन्य गुण है 'धर्म' और 'कलर्ज सिद्ध होती है। कोई वस्तु यदि किसी को सुखजनक है तो वही दूसरे न भक्षयेत्' इत्यादि निषिद्ध पापादि क्रियाओं के करने से 'अधर्म' को दु:खजनक भी हो सकती है। अतः न्यायबोधिनी में सुख-दु:ख के होता है। क्रमश: लक्षण हैं-१. 'इतरेच्छाऽनधीनेच्छाविषयत्वम्। 2. 'इतर [आत्ममात्र विशेषगुणाः के ? ] बुद्धयादयोऽष्टावात्ममात्रद्वेषानधीनद्वेषविषयत्वम् / विशेषगुणाः। बुद्धीच्छाप्रयत्ना नित्या अनित्याश्च / नित्या : 19-21. इच्छा-द्वेष प्रयत्नानां कानि लक्षणानि ?] इच्छा ईश्वरस्य, अनित्या जीवस्य / कामः / क्रोधो द्वेषः / कृतिः प्रयत्नः / अनुवाद--[ केवल आत्मा में रहने वाले विशेष गुण कौन हैं ? ] अनुवाद--[१९-२१. इच्छा, द्वेष और प्रयत्न के क्या लक्षण हैं ?] बुद्धि आदि (सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म और अधर्म) कामना इच्छा है / क्रोध द्वेष है। कृति प्रयत्न है। आठ केवल आत्मा में रहने वाले विशेष गुण हैं। बुद्धि, इच्छा और व्याख्या-जिसके होने पर प्राणी किसी कार्य के लिए प्रयत्न करता . प्रयत्न ये नित्य और अनित्य हैं। ईश्वर के नित्य और जीव के है, वही है इच्छा / इसे ही काम = कामना भी कहते हैं (प्रयत्नजनकगुणत्वं अनित्य हैं। कामत्वरूपं वा)। जिसके होने पर प्राणी किसी कार्य से निवृत्त होवे . व्याख्या-बुद्धि आदि आठ गुण केवल आत्मा में पाये जाते हैं। वह है 'द्वेष' / क्रोध भी एक प्रकार का द्वेष है (निवृत्तिजनकगुणत्वं इनमें बुद्धि (पान), इच्छा और प्रयत्न ये तीन गुण जीवात्मा में क्रोधत्वरूपं वा)। यद्यपि क्रोधस्थल में भी शत्रु को मारने के लिए... In अनित्य गुण हैं और परमात्मा में नित्य हैं। प्रवृत्ति देखी जाती है परन्तु उस प्रवृत्ति के प्रति क्रोध कारण नहीं है, 11. प्रश्न-आत्मत्व जाति जब जीवात्मा और ईश्वर दोनों में है तो अपितु क्रोधप्रयुक्त निवृत्ति की रक्षा के लिए इच्छा और प्रयत्न होने ईश्वर में भी सुख-दुःख की उत्पत्ति होना चाहिए। पर ही शत्रु को मारने की चेष्टा होती है। चेष्टा के प्रति कारणीभूत' . उत्तर-कुछ लोग ईश्वर में आत्मत्व जाति मानते हैं और कुछ गुण है 'प्रयत्न' (चेष्टाजनकगुणत्वम् ) / स्वयं चेष्टा प्रयत्न नहीं है। लोग नहीं मानते हैं / जो ईश्वर में आत्मत्व जाति नहीं मानते हैं उनके इच्छात्व, द्वेषत्व और प्रयत्नत्व ये जातियाँ हैं। यहाँ तो यह प्रश्न बेकार है परन्तु जो ईश्वर में आत्मत्व जाति मानते [22-23. धर्माधर्मयोः के लक्षणे ?] विहितकर्मजन्यो / हैं उनका कहना है कि ईश्वर में अदष्ट आदि निमित्तकारण के न होने से उसमें सुख-दुःख की उत्पत्ति नहीं होती / कुछ का कहना है कि धर्मः / निषिद्धकर्मजन्यस्त्वधर्मः ] जो धर्म स्वरूपयोग्य हैं उन्हें उत्पन्न होना ही चाहिए यह आवश्यक अनुवाद--[२२-२३. धर्म और अधर्म के क्या लक्षण हैं ?] / नहीं है, जैसे-परमाणु में नित्य स्नेह रहता है और उसमें जन्य स्नेह विहित (वेदादि धर्मग्रन्थोक्त विधि से विहित ) कर्मों से उत्पन्न की योग्यता भी है परन्तु परमाणु में जन्य स्नेह कभी उत्पन्न नहीं [अदृष्ट ] धर्म है / निषिद्धकर्मों से उत्पन्च [ अदृष्ट ] अधर्म है।

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