Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 57
________________ | 1081 [ तर्कसंग्रहः दोनों को स्वतः (ज्ञान की ग्राहक सामग्री से ही उसकी प्रमाणता एवं अप्रमाणता का ज्ञान होना) मानते हैं / नैयायिक दोनों को परतः (जहाँ ज्ञान की ग्राहक सामग्री से भिन्न सामग्री द्वारा उस ज्ञान के "प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य का निश्चय किया जाता है) मानते हैं, अतः वे वेदों का भी प्रामाण्य ईश्वर के द्वारा रचित होने से मानते हैं। उनका कहना है कि यदि प्रामाण्य स्वतः मानेंगे तो संशयादि नहीं होंगे। मीमांसक प्रामाण्य को स्वतः तथा अप्रामाण्य को परतः / स्वीकार करते हैं / बौद्ध प्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः मानते हैं। जैन ज्ञप्ति की अपेक्षा अभ्यास दशा में दोनों को स्वतः और अनभ्यास दशा में परत: मानते हैं परन्तु उत्पत्ति की अपेक्षा न्यायमत का अनुसरण करते हैं। (ङ) अथाऽवशिष्टगुणनिरूपणम् [ अयथार्थानुभवस्य कति भेदाः? ] अयथार्थानुभवस्त्रिविधा-संशय-विपर्यय तर्कभेदात् / [ सशयस्थ कि लक्षणम् ?] एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मवैशिष्टयावगाहिज्ञानं संशयः। यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति / [ विपर्ययस्य किं लक्षणम् 1] / मिथ्याज्ञानं विपर्ययः। यथा शुक्ती रजतमिति / [ तर्कस्य किं , स्वरूपम् ? ] व्याप्याऽऽरोपेण व्यापकाऽऽरोपस्तकः। यथा यदि बहिर्न स्यात्तर्हि धूमोऽपि न स्यादिति / अनुवाद---[अयथार्थानुभव के कितने भेद हैं ? ] अयथार्थ अनुभव संशय, विपर्यय और तर्क के भेद से तीन प्रकार का है। [संशय का क्या लक्षण है ? ] एक मि में परस्पर विरुद्ध अनेक 'धर्मों से विशिष्ट होने का ज्ञान संशय है / जैसे—यह स्थाण है अथवा "पुरुष। [विपर्यय का क्या लक्षण है ? 1 मिथ्याज्ञान विपर्यय है। जैसे सीप में 'यह चाँदी है' ऐसा ज्ञान / [तर्क का क्या लक्षण है ? ] अयथार्थानुभवभेदाः ] [ 101.. व्याप्य के आरोप ( आहार्यज्ञान ) से व्यापक का आरोप करना तर्क है। जैसे-यदि आग न होती तो धम भी नहीं होता। व्याख्या-प्रमारूप यथार्थानुभव के चारों भेदों का निरूपण पहले किया जा चुका है। यहाँ अप्रमारूप अयथार्थानुभव का निरूपण क्रम प्राप्त है। जो पदार्थ जैसा नहीं है उसे वैसा समझना अप्रमा है 'तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः'। यह अयथार्थानुभव तीन प्रकार का है-संशय, विपर्यय ( भ्रम ) और तर्क / कुछ लोग तर्क को विपर्यय के ही अन्तर्गत मानते हैं क्योंकि तर्क में आहार्य विपर्यास होता है। तीनों के स्वरूप निम्न हैं (1) संशय-'एकस्मिन्धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मवैशिष्ट्यावगाहिज्ञानं संशयः' किसी एक धर्मी (अधिकरण = एक ही पुरोवर्ती पदार्थ) में विरुद्ध अनेक धर्मों के सम्बन्ध का अवगाहन करने वाला ज्ञान है 'संशय' / जैसे 'यह स्थाणु है या पुरुष'। 'घटपटौ' इस (घटत्वपटत्व के अवगाहक ) समूहालम्बनात्मक ज्ञान में अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'एकस्मिन् धर्मिणि' कहा / समूहालम्बनात्मक ज्ञान में दो धर्मी हैं। 'घट: पृथिवी' यहाँ एक धर्मी में घटत्व और पृथिवीत्क' आदि अनेक धर्मों के सम्बन्ध का अवगाहन होने से इसमें लक्षण की अतिव्याप्ति के वारणार्थ 'विरुद्ध' पद दिया है। घटत्व और पृथिवीत्व दोनों विरुद्ध धर्म नहीं हैं। इस तरह संशय में दो बातें होती हैं(१)धर्मी का एक होना तथा (2) उस एक धर्मी में विरुद्ध नाना धर्मों का ज्ञान। संशय उभयकोटिक या नानाकोटिक (अनिश्चयात्मक) होता है। न्यायबोधिनीकार का कहना है कि संशय ज्ञान केवल विषद्ध अनेक-- विशेषणक धर्म होने से ही नहीं होता अपितु उसमें उन विशेषणीभूत अनेक धर्मों को भाव एवं अभाव स्वरूप भी होना चाहिए। जैसे-'यह स्थाणु है या पुरुष' इस स्थल में दो संशय हैं-(१) यह स्थाणु है या नहीं। (2) यह पुरुष है या नहीं। अर्थात केवल भावद्वयकोटिक संशय अप्रसिद्ध है / संशय को हमेशा भाव+ अभाव

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