Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 54
________________ 102] [तर्कसंग्रहः परन्तु यहाँ 'शक्तं पदम्' (शक्त्याश्रय) कहा है तथा 'इस पद से यह अर्थ जानना चाहिए' ऐसी ईश्वरेच्छा या ईश्वरसंकेत को शक्ति बतलाया है (ईश्वरसंकेतो नाम ईश्वरेच्छा, सैवशक्तिरित्यर्थः)। इस तरह न्याय दर्शन में ईश्वरेच्छारूप शक्ति के आश्रय को 'पद' कहा है / यह प्राचीन नैयायिकों का मत है। नवीन नैयायिक इच्छामात्र (चाहे वह ईश्वर की हो या अन्य किसी व्यक्ति की) को शक्ति कहते हैं। दीपिका टीका में अर्थ की स्मृति के अनुकूल पद और पदार्थ के " " सम्बन्ध को शक्ति कहा है 'अर्थस्मृत्यनकल: पदपदार्थसम्बन्धः शक्तिः। मीमांसक शक्ति को पृथक् पदार्थ मानते हैं और नैयायिक उसे केवल इच्छा। शब्द के प्रति कारण होने वाली पदार्थोपस्थिति जैसे शक्तिज्ञान से होती है उसी प्रकार लक्षणाज्ञान से भी होती है। अतः लक्षणा भी एक स्वतन्त्र वृत्ति (शाब्दबोधजनक पदार्थोपस्थापक सम्बन्ध) है। 'शक्यसम्बन्धो लक्षणा' (शक्यसम्बन्ध को लक्षणा कहते हैं)। इस तरह अभिधा और लक्षणा ये दो वृत्तियाँ हैं। अलंकार शास्त्रियों द्वारा मान्य व्यञ्जना बृत्ति को नैयायिक स्वीकार नहीं करते हैं। वे शाब्दी व्यञ्जना का लक्षणा (गौणी लक्षणा) में और आर्थी व्यञ्जना का अनुमान में अन्तर्भाव मानते हैं। मीमांसकों एवं वैयाकरणों के अनुसार वाक्य में क्रिया की प्रधा- ) नता होती है और वह क्रिया ही शब्दों के परस्पर सम्बद्ध होने में कारण होती है। क्रिया के अभाव में 'देवदत्तः ग्रामम्' आदि शब्द परस्पर सम्बद्ध नहीं होंगे। इस तरह क्रिया विशेष्य होती है और देवदत्त, ग्राम आदि उसके विशेषण / तदनुसार जब हम कहते हैं 'देवदत्तो ग्राम गच्छति' तो अर्थ होता है-देवदत्तकर्तकग्रामकर्मकगमनक्रिया' / 'चैत्रः तण्डुलं पचति' का अर्थ होगा 'चैत्रकर्तेकतण्डुलकर्मकपाकक्रिया'। इस तरह मीमांसकों वं वैयाकरणों के अनुसार क्रिया के होने पर ही शाब्दबोध होता है। परन्तु नैयायिकों के अनुसार क्रिया का होना आवश्यक नहीं है। उनके अनुसार वाक्य (पदसमूह) में कर्ता, कर्म और क्रिया तीनों रहते हैं। क्रिया कर्तृनिष्ठ होती है और वह कर्ता / शब्दप्रमाणम् ] [ 103 एवं कर्म में सम्बन्ध बतलाती है। अर्थात् केवल क्रियाबोधक पद ही शाब्दबोध नहीं कराते अपितु सभी पद शाब्दबोध कराते हैं (पदसमूहादेव शाब्दबोधो नैकस्मादिति / इस तरह मीमांसकों की तरह 'पदानामन्वयविशिष्टे शक्तिः' न मानकर 'पदानामन्वय एव शक्तिः' मानते हैं। अतः 'देवदत्तः गच्छति' से गमनशील देवदत्त का बोध होता है। नैयायिकों के अनुसार शक्ति अन्वय में होती है अन्वित पदों में नहीं। जब आकांक्षा, योग्यता आदि से सहित पद बाक्य में अन्वित होते हैं तभी शाब्दबोध कराते हैं। अतः 'पदसमूह' को न्यायदर्शन में वाक्य कहा गया है। प्रश्न - 'संकेतरूपा शक्ति' कहाँ रहती है ? केवल जाति में, केवल व्यक्ति में, जातिविशष्टव्यक्ति में अथवा अपोह में? उत्तर-मीमांसक केवल जाति में, नव्यनैयायिक केवल व्यक्ति में, प्राचीन नैयायिक ( अन्नम्भट्ट भी) जातिविशिष्ट व्यक्ति में और बौद्ध अपोह में शक्ति मानते हैं। इसका तात्पर्य है कि जब हम 'घट' का उच्चारण करते हैं तो 'घट' शब्द से घट का ज्ञान होता है या घटत्व का या घटत्वविशिष्ट घट का या पटादि से भिन्न ( अपोह) का। इसका विस्तृन विचार तत्तत् ग्रन्थों से देखना चाहिए। प्रश्न-शब्द से संकेतित अर्थ का ज्ञान किन साधनों से होता है ? उत्तर--आठ साधनों से होता हैशक्तिग्रहो व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च / वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सांनिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः / / अर्थ-शब्द का अर्थज्ञान आठ साधनों से होता है-१. व्याकरण से, 2. उपमान ( सादृश्य ) से, 3. कोश से, 4. आप्तवाक्य से, 5. वृद्धव्यवहार से, 6. वाक्यशेष (प्रसङ्ग) से, 7. विवृत्ति ( व्याख्या) से, और 8. सान्निध्य से। हस्तसंकेतादि से भी अर्थ का ज्ञान होता है। इनमें वृद्धव्यवहार प्रमुख है /

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