Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 43
________________ 80] [ तर्कसंग्रहः उदाहरण दो प्रकार से संभव है-विधिपरक और निषेधपरक / [विधिपरक को अन्वयी और निषेधपरक को व्यतिरेकी कहते हैं। ऊपर दिया गया उदाहरण विधिपरक ( अन्वयी ) है। निषेधपरक (व्यतिरेकी) उदाहरण उसी अनुमान में होगा-'यत्र यत्र अग्न्या-- भावः तत्र तत्र धमाभावः, यथा जलहदः' जहाँ जहाँ आग का अभाव है वहाँ वहाँ धूम का अभाव है जैसे-तालाब / [स्वार्थानुमितिपरार्थानुमित्योः किं करणम् ? ] स्वार्थानुमितिपरार्थानुमित्योलिङ्गपरामर्श एव करणम् / तस्माल्लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम् / अनुवाद---[ स्वार्थानुमिति और परार्थानुमिति का करण क्या है ? ] स्वार्थानुमिति और परार्थानुमिति में लिङ्गपरामर्श ही करण है। अतएव लिङ्गपरामर्श ही अनुमान है। ___ व्याख्या-वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वतः' अथवा 'वह्निव्याप्यो धूमः पर्वते' ऐसा लिङ्गपरामशत्मिक ज्ञान ही दोनों प्रकार की अनुमितियों का करण है। अतएव लिङ्गपरामर्श ही अनुमान प्रमाण है। यह लिङ्गपरामर्श तृतीय कोटि का ज्ञान है-(१) रसोईघर आदि में धूम और आग की व्याप्ति को ग्रहण करने पर जो धूमज्ञान होता हैं / वह प्रथम ज्ञान है / (2) पक्ष (पर्वतादि) में जो धूमज्ञान होता है वह द्वितीय ज्ञान है। (3) पक्ष ( पर्वत आदि ) में ही वह्नि की व्याप्ति के त्याश्रयत्वेन जो धूमज्ञान है वह तृतीयज्ञान (लिङ्गपरामर्श ) है। प्रश्न-व्याप्तिज्ञान तथा पक्ष-धर्मताज्ञान से ही जब अनुमति संभव है तो फिर लिङ्ग-परामर्श को पृथक् क्यों माना गया है ? परामर्श तो व्याप्तिज्ञान और पक्षधर्मताज्ञान का ही समुच्चय है।। उत्तर-दीपिका टीका में कहा गया है कि लाघव की दृष्टि से व्याप्ति और पक्षधर्मताज्ञान इन दो को कारण मानने की अपेक्षा एक परामर्ष को ही कारण मानना अधिक उचित है। किश्च, 'वह्नि अनुमित्योः करणं त्रीणि लिङ्गानि च ] [810 व्याप्यधूमवानयम्' इस शाब्दपरामर्श के स्थल में विशिष्टपरामर्श की आवश्यकता होती ही है। अतएव परामर्श को मानना आवश्यक होने से उसे ही करण मानना चाहिए। प्रश्न-'ज्ञयमान लिङ्ग' को करण मानने में क्या दोष है ? उत्तर-ऐसा मानने पर केवल वर्तमानकालिक लिङ्ग से ही अनुमिति होगी, अतीतादिकालिक लिङ्ग से नहीं, जबकि अतीतादि'लिङ्ग से भी अनुमिति देखी जाती है। जैसे-'इयं यज्ञशाला वह्नि-1 मती, अतीतधूमात्' (यह यज्ञशाला आगवाली है, अतीतकालीन धम होने से)। 'ज्ञायमान' शब्द 'ज्ञा' धातु से वर्तमान काल में 'लट् के स्थान में 'शानच्' प्रत्यय से बना है। अतः लिङ्ग-परामर्श ही अनुमान है। [लिङ्ग कतिविधम् ? ] लिङ्ग त्रिविधम्-अन्वयव्यतिरेकि, केवलान्वयि, केवलव्यतिरेकि चेति / [ अन्वयव्यतिरेकिणः किं लक्षणम् ? ] अन्वयेन व्यतिरेकेण च व्याप्तिमदन्वयव्यतिरेकि / यथा बसौ साध्ये धूमवत्त्वम् / यत्र धूमस्तत्राग्निर्यथा महानसमित्यन्वयव्याप्तिः। यत्र वह्निर्नास्ति * तब धूमोऽपि नास्ति, यथा हद इति व्यतिरेकव्याप्तिः / [केवलान्वयिनः किं लक्षणम् 1] अन्वयमात्रव्याप्तिकं केवलान्वयि / वथा घटोऽभिधेयः, प्रमेयत्वात्पटवत् / अत्र प्रमेयत्वाभिधेयत्व'योर्व्यतिरेकव्याप्तिर्नास्ति सर्वस्यापि प्रमेयत्वादभिधेयत्वाच्च / [ केवलव्यतिरेकिणः किं लक्षणम ? ] व्यतिरेकमात्रव्याप्तिकं केवलव्यतिरेकि / यथा पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते, गन्धवत्वात् / यदितरेभ्यो न भिद्यते न तद्गन्धवत् , यथा जलम् / न चेयं तथा / तस्मान्न तथेति / अत्र यद्गन्धवत् तदितरभिन्नमित्यन्वयदृष्टान्तो नास्ति, पृथिवीमात्रस्य पक्षत्वात् /

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