________________ 46 ] [ तर्कसंग्रहः अनुभव:] [ 47 'मात्र' शब्द नहीं है। लक्षण में 'मात्र' पद का रहना अधिक उचित है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा (सोऽयं देवदत्तः = यह वही देवदत्त है) में पदार्थ की उपस्थिति आवश्यक है जबकि स्मृति में नहीं। स्मृति में सामने स्थित पदार्थ केवल उद्बोधक होता है। इस तरह स्मृति बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न न होकर भावना नामक संस्कार से होती है। इसका लक्षण होगा-'बहिरिन्द्रियाजन्यभावनाजन्यज्ञानत्व' / अनुमिति आदि ज्ञान भावना से उत्पन्न नहीं होते हैं। स्मृति दो प्रकार की है-यथार्था- " | स्मृति (सच्चे ज्ञान से उत्पन्न होने वाली प्रमात्मक स्मृति ) तथा अयथार्थास्मृति (मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने वाली अप्रमात्मक | स्मृति / स्मृति के इन दोनों भेदों का विचार आगे किया जायेगा। ___ स्मृति से भिन्न सभी ज्ञानों को अनुभव कहा गया है-'स्मृतिभिन्नत्वे सति ज्ञानत्वम् / न्यायदर्शन के अनुसार वे सभी ज्ञान जो पुरातन ज्ञान की आवृत्ति मात्र नहीं हैं, अनुभव हैं / ये अनुभव कभी यथार्थ (सही) होते हैं और कभी अयथार्थ ( मिथ्या)। प्रशस्तपाद भाष्य में वृद्धि के भेद विद्या और अविद्या बतलाये हैं | अविद्या चार प्रकार की है-संशय, विपर्यय, स्वप्न और अनध्यवसाय / विद्या भी चार प्रकार की है-इन्द्रियज, अनिन्द्रियज, स्मृति तथा आर्ष ( योगिप्रत्यक्ष)। [अनुभवः कतिविधः 1 ] स द्विविधः-यथार्थोऽयथार्थश्च / तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः [ यथा रजते. 'इदं रजतम्' इति ज्ञानम् / स एव अमेत्युच्यते / तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः [ यथा शुक्तो 'इदं रजतम्' इति ज्ञानम् ] / सैवऽप्रमेत्युच्यते / अनुवाद-[ अनुभव कितने प्रकार का है ? ] वह अनुभव दो प्रकार का है-यथार्थानुभव ( सच्चा ज्ञान ) और अयथार्थानुभव (मिथ्याज्ञान)। जो पदार्थ जैसा है उसमें उसी प्रकार का अनुभव होना यथार्थ है। जैसे-चांदी में 'यह चांदी है' ऐसा ज्ञान होना / वही 'प्रमा' कहलाती है। जो पदार्थ जैसा न हो उसमें वैसा ज्ञान होना अयथार्थ (मिथ्याज्ञान) है। जैसे-सीप में 'यह चांदी है' ऐसा ज्ञान। व्याख्या-यथार्थानुभव को प्रमा (सच्चा ज्ञान) और अयथार्थानुभव को अप्रमा (मिथ्याज्ञान) कहा जाता है। प्रमात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति और शाब्द के भेद से चार प्रकार का है तथा अप्रमात्मक ज्ञान संशय, विपर्यय और तर्क के भेद से तीन प्रकार का है / इसका विचार आगे किया जायेगा। 'तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवः प्रमा' इस लक्षण में विशेष्य और प्रकार को समझना आवश्यक है क्योंकि जब किसी को विशिष्ट ज्ञान होता है तो वह विशेष्य और प्रकार (विशेषण) दोनों को लेकर होता है। विशेषणरूप से प्रतीयमान को 'प्रकार' कहते हैं और आश्रयरूप से प्रतीयमान को विशेष्य कहते हैं। जैसे-'अयं घट: इस ज्ञान में 'घट' है विशेष्य और घट में रहने वाला 'घटत्व' धर्म जो घट को पटादि से पृथक करता है, घट का प्रकार है। अत: 'अयं घट:' का अर्थ हुआ 'घटविशेष्यकघटत्वप्रकारक' जो घट विशेष्य वाला है और घटत्व प्रकारवाला है, वह घट ज्ञान / इस तरह 'तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवः' का अर्थ होगा 'घटविशेप्यक-घटत्वप्रकारकोऽनुभवः' / इसे ही सरल शब्दों में कहा जायेगा . 'जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूप में ज्ञान प्रमा है। सांख्य एवं वेदान्त में 'अनधिगताबाधितार्थविषयत्वम्' ( ऐसे पदार्थ का ज्ञान जिसका पहले ज्ञान नहीं हुआ है, और जो कभी बाधित नहीं होता है) प्रमा का लक्षण बतलाया है। 'अनधिगत' पद से यहाँ स्मृति का वारण किया गया है। 'तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः' इस अप्रमा के लक्षण को भी पूर्ववत् समझना चाहिए। जैसे-सीप में 'इदं रजतम्' (यह चाँदी है) ऐमा ज्ञान 'रजतविशेष्यक-रजतत्वप्रकारक' नहीं है