Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 36
________________ सन्निकर्षभेदाः] [67 . . [ तर्कसंग्रहः अनुवाब-[ सन्निकर्ष कितने प्रकार का है ? ] प्रत्यक्षज्ञान का हेतु इन्द्रियार्थसन्निकर्ष (घटादिविषयों के साथ चक्षु आदि इन्द्रियों का सन्निकर्ष-सम्बन्ध ) छ: प्रकार का है-संयोग, संयुक्तसमवाय, सयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव / घिट द्रव्य के प्रत्यक्ष में कौन सा सन्निकर्ष है? ] चक्ष से घट का प्रत्यक्ष होने में संयोग-सन्निकर्ष है। [ घटरूप के प्रत्यक्ष में कौन सा सन्निकर्ष है?] घट के रूप का प्रत्यक्ष होने में संयुक्तसमवायसन्निकर्ष है क्योंकि चक्षु से संयुक्त घट में रूप समवायसम्बन्ध से रहता है। [ रूपत्व के प्रत्यक्ष में कौन सा सन्निकर्ष है? ] रूपत्व सामान्य (जाति) के प्रत्यक्ष में संयुक्तसमवेतसमवाय-सन्निकर्ष है क्योंकि चक्षु से संयुक्त घट में रूप समवाय सम्बन्ध (समवेत) से है और उसमें (घटरूप में) रूपत्व समवाय सम्बन्ध से है। [शब्द के प्रत्यक्ष में कौन सा सन्निकर्ष है?] कर्ण से शब्द का प्रत्यक्ष करने में समवाय सन्निकर्ष है क्योंकि कर्णविवर ( कान का छिद्र) में जो आकाश है वही श्रोत्रन्द्रिय है, शब्द आकाश का गुण है तथा गुण और गुणी का समवायसम्बन्ध होता है। [शब्दत्व के साक्षात्कार में कौन सा सन्निकर्ष है ? ] शब्दत्व के साक्षात्कार में समवेतसमवाय सन्निकर्ष है क्योंकि श्रोत्र में समवेत (समवाय सम्बन्ध से रहने वाला) शब्द में शब्दत्व समवाय सम्बन्ध से रहता है। [अभाव के प्रत्यक्ष में कौन सा सन्निकर्ष है ? ] अभाव के प्रत्यक्ष में विशेषणविशेष्यभाव सन्निकर्ष है क्योंकि 'घटाभाव वाला भूतल है' यहाँ चक्ष से संयुक्त . भूतल में घटाभाव विशेषण है। व्याख्या-प्रत्यक्षप्रमा के लक्षण में कहा गया था 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्' / सन्निकर्ष शब्द का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न के उत्तर में यहाँ कहा गया है 'प्रत्यक्षज्ञानहेतुरिन्द्रियाऽर्थसन्निकर्षः' अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ का वह सम्बन्ध विशेष जो प्रत्यक्षज्ञान कराने में विशेष कारण है, सन्निकर्ष है। 'करण' के विचार के संदर्भ में बतलाया गया था कि प्राचीन नैयायिकों के अनुसार करण में व्यापार का होना आवश्यक है और नव्य नैयायिकों के अनुसार व्यापार ही करण है। तदनुसार प्राचीन नैयायिकों ने इन्द्रिय को प्रमाण स्वीकार किया है और इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को ब्यापार / व्यापार वह है जो स्वयं द्रव्य न होते हुए भी करण से जन्य हो और करण से जन्य फल का जनक हो (द्रव्येतरत्वे सति तज्जन्यत्वे सति तज्जन्यजनको व्यापारः)। इस तरह सन्निकर्ष को प्रत्यक्षज्ञान का हेतु माना गया है। यह सन्निकर्ष प्रथमतः दो प्रकार का माना गया है-लौकिक सन्निकर्ष और अलौकिक सन्निकर्ष / लौकिक सन्निकर्ष छः प्रकार का है और अलौकिक सन्निकर्ष तीन प्रकार का है। अलौकिक सन्निकर्ष के तीन भेद हैं-१. सामान्यलक्षण सन्निकर्षव्याप्तिज्ञान के स्थल में धूमत्व सामान्य से समस्त धम की प्रतीति इसी सन्निकर्ष से होती है। 2. ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष-'यह वही देवदत्त है', 'यह चन्दन सुरभि है' इत्यादि स्मरण और प्रत्यक्ष के जोड़रूप प्रत्यभिज्ञान में जो सन्निकर्ष हेतु है, वह है ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष। 3 योगज सन्निकर्ष-योगियों को होने वाला। यहाँ ग्रन्थ में लौकिक सन्निकर्ष का ही प्रतिपादन किया गया है, उसके छ: भेदों का और उनसे होने वाले प्रत्यक्ष का निरूपण निम्न हैं (1) संयोग सन्निकर्ष-यह सन्निकर्ष दो द्रव्यों में होता है। अतः घटादि द्रव्यों का जब चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है तो घटादि विषयों के साथ चक्षु इन्द्रिय का संयोग सन्निकर्ष होता है क्योंकि घटादि विषय तथा चक्षु इन्द्रिय दोनों ही द्रव्य हैं। स्पार्शन इन्द्रिय से भी द्रव्य का प्रत्यक्ष माना जाता है। अतः जब त्वचा इद्रिय का घटादि विषयों के साथ संयोग होता है तो उसका प्रत्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त आत्मा और मन का संयोग होने पर भी संयोग सन्निकर्ष होता है। शेष इन्द्रियों से द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं होता है / अतः वहाँ संयोग-सन्निकर्ष नहीं माना जाता है। इस तरह द्रव्य के चाक्षष, त्वाच और मानस प्रत्यक्ष में संयोग सन्निकर्ष होता है। वैशेषिकों के अनुसार आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस संदर्भ में अन्नम्भट्ट .

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