________________ 74 ] [ तर्कसंग्रहा रहने का ज्ञान 'वह्निव्याप्यधुमवानयं पर्वत इति ज्ञानं परामर्शः' अर्थात् व्याप्तिविशिष्ट हेतु का साध्य-स्थल पर्वतादि में रहने का ज्ञान परामर्श है। व्याप्ति-'साहचर्यनियमो व्याप्तिः' हेतु और साध्य का त्रैकालिक साहचर्य-नियम व्याप्ति है। साहचर्य को ही सामानाधिकरण्य ( एक , आश्रय में रहना) और अव्यभिचरितत्व ( साध्याऽभाववदवृत्तित्वम् - साध्याभाव वाले स्थल में न रहना ) भी कहा जाता है। इस तरह व्याप्ति एक प्रकार का साध्य और साधन का सम्बन्ध विशेष है।। यह व्याप्ति दो प्रकार की है-(क) अन्वयव्यामि-इसमें हेतु के " रहने पर साध्य का सद्भाव बतलाया जाता है। अत: साधन (धम) व्याप्य होता है और साध्य (अग्नि) व्यापक। जैसे-यत्र तत्र धमस्तत्र तत्राऽग्निः, यथा महानसम् ( जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ आग है, जैसे-रसोईघर)। (ख) व्यतिरेकव्याप्ति-इसमें साध्य के अभाव से साधन का अभाव बतलाया जाता है। अतः साध्याभाव ( वयाभाव) व्याप्य होता है और साधनाऽभाव (धूमाभाव ) व्यापक होता है। जैसे—यत्र यत्र वह्नयाभावः तत्र तत्र धूमाभावः, यथा जलह्रदः (जहाँ जहाँ आग का अभाव है वहाँ वहाँ धूम का अभाव है, जैसे-तालाब आदि) / अयोगोलक ( तप्त लौहपिण्ड ) में आग तो है परन्तु धूम नहीं है। अतः व्यतिरेकव्याप्ति में साधनाभाव से साध्याभाव होता है ऐसा नहीं कह सकते हैं, अन्यथा अयोगोलक में व्यभिचार (दोष) होगा क्योंकि अयोगोलक 'में साधनाभाव (धूमाभाव ) तो है परन्तु साध्याभाव ( वह्नयाभाव ) नहीं है / अतः व्यतिरेकल्याप्ति में हमेशा साध्याभाव से साधनाभाव बतलाया जाता है। पक्षधर्मता--'व्याप्यस्य पर्वतादिवत्तित्वं पक्षधर्मता' व्याप्य (व्याप्तिविशिष्ट धूम ) का पर्वतादि पक्ष में रहना पक्षधर्मता है। हेतु की पक्षधर्मता जाने बिना व्याप्ति बन ही नहीं सकती है। अतः अनुमानभेदी] [ 75 सद् हेतु को सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यक्तत्व के साथ पक्षसत्व भी होना जरूरी है। [अनुमानं कतिविधम् ? ] अनुमानं द्विविधम्-स्वार्थ परार्थं च / स्वार्थानुमानस्य किं स्वरूपम् ?] तत्र स्वार्थ स्वानुमितिहेतुः / तथाहि-स्वयमेव भूयोदर्शनेन 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्नि रिति महानसादौ व्याप्तिं गृहीत्वा पर्वतसमीपं गतस्तद्गते चाऽग्नौ सन्दिहानः पर्वते धूमं पश्यन् व्याप्ति स्मरति'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्नि' रिति / तदनन्तरं 'वहिव्याप्यधूमवानयं पर्वत' इति ज्ञानमुत्पद्यते / अयमेव लिङ्गपरामर्श इत्युच्यते / तस्मात् 'पर्वतो वह्निमान्' इति ज्ञानमनुमितिरुत्पद्यते / तदेतत्स्वार्थानुमानम् / [ परार्थानुमानस्य किं स्वरूपम् ? ] यत्तु स्वयं धूमादग्निमनुमाय परं प्रति बोधयितुं पश्चावयववाक्यं प्रयुज्यते तत् परार्थानुमानम् / यथा 'पर्वतो वह्निमान् , धूमवत्त्वात् , यो यो धूमवान् स स वह्निमान् , यथा महानसम् , तथा चायम् , तस्मात्तथा' इति / अनेन प्रतिपादिताल्लिङ्गात्प-- रोऽप्यग्नि प्रतिपद्यते / . अनुवाद-[अनुमान कितने प्रकार का है ? ] अनुमान दो प्रकार का है-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। [स्वार्थानुमान का क्या स्वरूप है ? ] उनमें (स्वार्थ और परार्थ अनुमान में) अपनी अनुमिति के हेतु को स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे-स्वयं ही बार-बार देखने से 'जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ आग है' इस प्रकार रसोईघर आदि में व्याप्ति को जानकर पर्वत के पास गया और वहाँ स्थित आग में सन्देह करता हुआ पर्वत में धूम को देखकर व्याप्ति का स्मरण करता है 'जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ आग है।' इसके बाद 'यह