Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 30
________________ [ तर्कसंग्रहः समवाय्यादिकारणानि ] पटश्च स्वगतरूपादेः। कार्येण कारणेन वा सहकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवायिकारणम् / यथा-तन्तुसंयोगः पटस्य, तन्तुरूपं पटरूपस्य / तदुभयभिन्न कारणं निमित्त कारणम् / यथातुरीवेमादिकं पटस्य / (1) न्याय-वैशेषिकों का असत्कार्यवाद--कार्य कारण से सर्वथा भिन्न है तथा उत्पत्ति से पूर्व कार्य का कोई अस्तित्व नहीं रहता है। यह सिद्धान्त 'असत्कार्यवाद' या आरम्भवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इनके यहाँ कारण सत् होता है और उस सत् कारण से असत् (अविद्यमान) घटादिकार्य उत्पन्न होते हैं जो कारण से भिन्न हैं / इस तरह ये सत् से असत् की उत्पत्ति मानते हैं / इसीलिए इनके यहाँ कार्य का लक्षण 'प्रागभावप्रतियोगी' किया गया है। (2) बौद्धों का शून्यवाद-ये असत् कारण से सत् कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। इनके यहाँ प्रत्येक पदार्थ क्षणस्थायी है, अतः जब परवर्ती क्षण में कार्य उत्पन्न होता है तो कारण नष्ट हो चुका . रहता है। अतः यह दर्शन असत् से सत् की उत्पत्ति मानने वाला शुन्यवादी कहलाता है। (3) सांख्य का सत्कार्यवाद या परिणामवाद-ये सत् कारण का सत् कार्य के रूप में परिणमन मानते हैं। इनके अनुसार कारण में कार्य पहले से ही अव्यक्तरूप में विद्यमान रहता है, यदि ऐसा न माना जाए तो किसी भी पदार्थ से किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति होने लगेगी। दुध का परिणमन जैसे दधी के रूप में होता है उसी प्रकार कारण कार्य के रूप में बदल जाता है। अतः दोनों की वास्तविक सत्ता है। (4) वेदान्तियों का मायावाद या विवर्तवाद-ये कारण को सत् रूप मानते हैं परन्तु कार्य को असत् (माया - विवर्त)। इनके अनुसार कारण का कार्य के रूप में भ्रम होता है, जैसे रस्सी में सर्प की भ्रान्ति / ब्रह्म को नित्य मानने के कारण वेदान्ती कार्य को भ्रम मानते हैं। [कारणानि कतिविधानि कानि च तेषां लक्षणानि?] कारणं त्रिविधं-समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात / यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत् समवायिकारणम् / यथा-तन्तवः पटस्य, . अनुवाद -[ कारण कितने प्रकार के हैं और उनके क्या लक्षण है? ] समवायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण के भेद से कारण तीन प्रकार के हैं। जिसमें (जिस द्रव्य में ) समवाय. सम्बन्ध से कार्य उत्पन्न हो वह समवायिकारण है / जैसे-त-तु (धागे ) पट के [ समवायिकारण हैं ] और पट अपने रूप का | समवायिकारण है। कार्य के साथ अथवा कारण के साथ एक पदार्थ (अधिकरण ) में समवाय सम्बन्ध से रहने वाला कारण असमवायिकारण है। जैसे-तन्तुओं का संयोग पट का | असमवायिकारण है ] और तन्तु का रूप पट के रूप का [असमवायिकारण है] / इन दोनों (समवाथिकारण और असमवायिकारण ) से भिन्न कारण निमित्तकारण है। जैसे-तुरी, वेमा ( जुलाहे के औजार ) आदि पट के [ निमित्तकारण ] हैं। व्याख्या-वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य ही समवायिकारण होता है। गुण और कर्म असमवायिकारण होते हैं। निमित्तकारण कोई भी हो सकता है। अभाव केवल निमित्तकारण होता है। नित्य द्रव्यों में रहने वाला विशेष कहीं भी कारण नहीं है। आत्मा में रहने बाले विशेष गुण किसी के भी असमवायिकारण नहीं हैं, वे निमित्तकारण माने जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में जिसे समवायिकारण कहा जाता है उसे अन्यत्र उपादानकारण कहा जाता है परन्तु स्वरूप भिन्न है। असमवायिकारण को अन्य दार्शनिक स्वीकार नहीं करते हैं। ___समवायिकारण द्रव्य ही होता है, अतएव द्रव्य में समवाय-सम्बन्ध से रहने वाले रूप, रस आदि गुणों और उत्क्षेपण आदि कर्मों की होता है।

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