________________ 56 ] [ तर्कसंग्रहः समवाय्यादिकारणानि ] [57 (पट) का समवाय सम्बन्ध माना जाता है तथा अवयव में अवयवी समवाय सम्बन्ध से रहता है। अत: अवयव तन्तु 'समवायी' हैं और अवयवी पट उसमें 'समवेत' है। इस तरह कार्य अपने कारण में समवेत होता है। अतः जिस कारण ( तन्तु ) में कार्य (पट) समवाय सम्बन्ध से समवेत (रहते हए उत्पन्न हो वह समवायि. कारण है। उत्पत्ति के प्रति भी घट, पट आदि द्रव्य ही समवायिकरण होते हैं अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों कार्यों के प्रति समवायिकारण द्रव्य ही होता है। द्रव्य-कार्य के प्रति द्रव्य के अवयव समवायिकारण होते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण और कर्म पृथक्-पृथक वस्तु हैं / अत: पट कार्य से पटरूप कार्य भिन्न है। जब पटरूप कार्य पट से भिन्न है तो पटरूप के कारणों का भी विचार आवश्यक है। इस संदर्भ में पटरूप का समवायिकारण पट माना गया है और " . असमवायिकारण तन्तुरूप। इसी प्रकार घट रूप कार्य का समवायिकारण है घट तथा असमवायिकारण है कपालरूप / इस तरह कुछ कार्यों के समवायिकारण और असमवायिकारण निम्न हैकार्य समवायिकारण तथा असमवायिकारण असमवायिकारण कार्य का अधिकरण का अधिकरण घट कपालद्वय कपालद्वय संयोग कपाल पट तन्तुसंयोग तन्तु घटरूप घट कपालरूप कपाल पटरूप पट तन्तुरूप सभी कार्य अपने-अपने समत्रायिकारणों में रहते हैं अर्थात् सभी / कार्यों का अधिकरण उनके अपने अपने समवायिकारण होते हैं। जैसे - घट कार्य का समवपिकारण कपालद्वय हैं। अत: घट का अधिकरण होगा 'कपालद्वय'। घटरूपकार्य का समवायिकारण है घट, अतएव घटरूप कार्य का अधिकरण होगा, 'घट' / न्याय-वैशेषिक दर्शन के इन मान्य सिद्धान्तों को समझने के बाद अब कारणों के स्वरूप का विचार प्रस्तुत है (1) समवायिकारण-'यत्समवेतं कार्य मुत्पद्यते तत् समवायिकारणम्' अर्थात् जिसमें (जिस द्रव्य में ) समवाय सम्बन्ध से कार्य उत्पन्न हो वह समवायिकारण है। अवयव ( तन्तु ) और अवयबी जिस प्रकार अवयव और अवयवी में समवाय सम्बन्ध है उसी प्रकार गुण और गुणी में, क्रिया और क्रियावान् में भी समवाय सम्बन्ध है। अत: जब पटरूप आदि कार्य उत्पन्न होते हैं तो वे की अपने अधिकरण पट में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं अर्थात पटरूप कार्योत्पत्ति के प्रति पट समवायी है और पटरूप उसमें समवेत है। इस तरह सर्वत्र समवायिकारण के लक्षण को घटा लेना चाहिए। यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि न्यायवैशेषिक के कार्य-कारणवाद के सिद्धान्तानुसार तन्तुओं में (समवायिकारण में ) जब पट उत्पन्न होता है तो सांख्य दर्शन की तरह तन्तु ( कारण ) पट के रूप में बदल नहीं जाते अपितु तन्तु भी बने रहते हैं और उसमें पट एक नया कार्य उत्पन्न हो जाता है / जो तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से 'समवेत होकर ) रहता है। अतः समवायिकारण और उपादानकारण को एक नहीं समझना चाहिए। तन्तु (2) असमवायिकारण-'कार्येण कारणेन वा सहकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमममवायिकारणम्' अर्थात् कार्य या कारण के साथ एक पदार्थ ( अधिकरण ) में समवाय-सम्बन्ध से रहने वाला कारण असमवायिकारण है। इस परिभाषा को हम दो भागों में विभक्त करके निम्न प्रकार कह सकते हैंE..(क) कार्यैकार्थप्रत्यासत्ति-जो समवायिकारण में समवाय सम्बन्ध से कार्य के साथ-साथ रहता हो वह असमवायिकारण है अर्थात्