________________ करण-कारण-कार्यलक्षणानि ] 52 ] [ तर्कसंग्रह नहीं होता है किन्तु नियत पूर्ववृत्तिता रूप के प्रति जैसे रूप-प्रागभाव की है वैसे ही रस-प्रागभाग की भा है। अतः रूप के प्रति रूप-प्रागभाव की तरह रस-प्रागभाव आदि भी कारण न हों एतदर्थ उन्हें अन्यथासिद्ध बतलाया है। कारिकावली (19-22) में इन्हें ही 5 भागों में विभक्त किया है। कारण 3 प्रकार के हैं जिनका विवेचन आगे किया जायेगा। कार्यविचार-जिसका कभी प्रागभाव रहा हो वह कार्य कहलाता है। आत्मा, आकाश, परमाणु आदि नित्य पदार्थ हैं, अतः इनका कभी भी प्रागभाव नहीं होता। प्रागभाव न होने से ये कार्य भी नहीं / कहलाते। अनित्य घट, पटादि ही कार्य कहलाते हैं क्योंकि उत्पत्ति से . पूर्व उनका अभाव रहता है। प्रागभाग स्वयं अपना प्रतियोगी नहीं हो सकता है, अतः वह भी कार्य नहीं है। कार्य के पारिभाषिक स्वरूप को समझने के. पूर्व प्रतियोगी, अनुयोगी और प्रागभाव को समझना आवश्यक है। प्रागभाव (कार्योत्पत्ति के पूर्व रहने वाला अनादि सान्त अभाव ) का विचार अभाव के प्रकरण में कर चुके हैं, आगे भी इसका विचार किया जायेगा। प्रतियोगी, अनुयोगी आदि शब्दों का प्रयोग न्यायदर्शन में बहुत . होता है। इसी कारण नव्य-न्याय की भाषा दुरूह हो गई है। प्रतियोगी एक बुद्धि-सापेक्ष सम्बन्ध है जो असत् पदार्थों में भी रह सकता है। इस सम्बन्ध को माने विना न्यायदर्शन का कार्य नहीं चल सकता है। क्योंकि नैयायिकों के अनुसार अभाव की स्वतन्त्र सत्ता है। अभाव के साथ भावात्मक छ: पदार्थों का सम्बन्ध प्रतियोगितासम्बन्ध कहलाता है। जैसे-घटाभाव का प्रतियोगी है घट, पटाभाव का प्रतियोगी है पट / ये प्रतियोगिता-सम्बन्ध विरुद्धत्व-सम्बन्ध हैं जिम में एक पदार्थ भावात्मक होता है और दूसरा अभावात्मक / प्रतियोगी की व्याख्या कई प्रकार से की गई है, यहां दो प्रकार की व्याख्या प्रस्तुत है (1) 'यस्याभावः सः प्रतियोगी' जिसका अभाव बतलाया जाता है वह उस अभाव का प्रतियोगी कहलाता है / जैसेघटाभाव का प्रतियोगी घट, पटाभाव का प्रतियोगी पट / यह अभाव-प्रतियोगी का स्वरूप है। (2) 'यनिरूपितं सादृश्यमन्यत्र नीयते स प्रतियोगी' जिसका ( यनिरूपित ) सादृश्य अन्यत्र ( मुखादि में ) ले जाया जाता है वह ( उपमान) प्रतियोगी कहलाता है। जैसे 'चन्द्रवत् मुस्खम्' (चन्द्रमा के समान मुख है) में चन्द्र है उपमान (जिससे सादृश्य बतलाया जाए) और मुख है उपमेय ( जिसका सादृश्य बतलाया जाए)। यहाँ चन्द्रमा में रहने वाला धर्म ( सौन्दर्य, आह्लाद आदि ) मुख में ले जाया जा रहा है। अतः चन्द्रमा प्रतियोगी है। अनुयोगी-'अधिकरणमनुयोगी' अधिकरण = आश्रय अनुयोगी कहलाता है। जैसे-'घटाभाववद् भूतलम्' (यह भूतल घटाभाव वाला है) यहाँ भूतल अनुयोगी है और घट प्रतियोगी। इसी प्रकार सादृश्यस्थल में ( यत्र सादृश्यं नीयते सोऽनु. योगी जहाँ सादृश्य ले जाया जाता है ऐसा उपमेय मुखादि अनुयोगी कहलाता है। इसे ही हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं जिस पदार्थ के साथ प्रतियोगिता सम्बन्ध होता है, वह अनुयोगी कहलाता है। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि घट यदि प्रतियोगी है तो प्रतियोगिता घट में रहेगी। घट यदि कार्य है तो कार्यता घट में ही रहेगी। मुख यदि अनुयोगी है तो अनुयोगिता भी मुख में ही रहेगी। दण्ड यदि कारण है तो कारणता दण्ड में ही रहेगी। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। इस विवेचन से कार्य का स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है। जैसे घट एक कार्य है और घटोत्पत्ति के पूर्व कपालद्वय में उसका प्रागभाव है। जब कपालद्वय से घट बन जाता है तो वह 'घट' घटाभाव का प्रतियोगी कहलाता है। अत: प्रागभाव के प्रतियोगी को कार्य कहा जाता है। कार्य की यह परिभाषा न्यायदर्शन के अनुसार है, अन्य दार्शनिक ऐसा नहीं मानते हैं / इसके मूल में कार्यकरण-सम्बन्ध' का सिद्धान्त है / जैसे .