Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 23
________________ 40 ] [ तर्कसंग्रहः विभाग-परत्वाऽपरत्वलक्षणानि ] [ 41 संयोग है तथा हाथ का पुस्तक से संयोग होने पर विना कुछ किए शरीर से पुस्तक का संयोग होना संयोगज-संयोग (एक से संयुक्त होने पर दूसरे से भी बिना क्रिया के संयुक्त हो जाना) है। न्यायदर्शन अवयव और अवयवी में भेद मानता है। अवयव होता है कारण और अवयवी होता है कार्य / अतः संयोगज-संयोग को कर्मजसंयोग नहीं कहा जा सकता है। यहाँ यह ध्यान रहे कि संयोग अव्याप्यवृत्ति (अपने समस्त आश्रय को व्याप्त करके न रहने वाला ) होता है अर्थात् एक ही अधिकरण में प्रदेश-भेद से संयोग और उसका अभाव दोनों ही रहते हैं। जैसे वृक्ष की एक शाखा पर कपि ( बन्दर ) बैठा है तो कपि का वृक्ष की उस शाखा से तो संयोग है परन्तु वृक्ष के मूल भाग से संयोग नहीं है, अपितु संयोगाभाव है। इस तरह शाखावच्छेदेन कपिसंयोग का होना और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव का होना ही संयोग की अव्याप्यवृत्तिता है। तर्कसंग्रह की कुछ प्रतियों में संख्या, परिमाण, पृथक्त्व और संयोग की परिभाषा में 'असाधारण' पद दिया है, कुछ में नहीं। मैंने सुखबोधार्थ देना उचित समझा है। [9. विभागस्य किं लक्षणम् ? ] संयोगनाशको गुणो / विभागः / सर्वद्रव्यवृत्तिः। करती है। इस तरह विभाग संयोगनाश का कारण है, स्वयं संयोगनाश नहीं। विभाग विभाजन-क्रिया भी नहीं है अपितु विभाजनक्रिया के तुरन्त बाद फलित होने वाला गुण है। जब हम पुस्तक को टेबुल से हटाकर कुर्सी पर रखते हैं तो प्रथमतः विभाजन-क्रिया होती है, तदनन्तर विभाग, पश्चात् पूर्वदेश ( टेबुल ) संयोगनाश, अनन्तर अपरदेश (कुर्सी) संयोग / विभाग उनमें नहीं माना जायेगा जिनका कभी संयोग नहीं हुआ है। नैयायिक विभागज-विभाग को नहीं मानते जबकि वैशेषिक संयोग की तरह विभागज विभाग भी मानते हैं। संयोग का व्याप्तिघटित लक्षण होगा-'संयोगनाशकत्वे सति गुणत्वम्' / इस तरह आकाश, कालादि में तथा ईश्वरेच्छा में अतिव्याप्ति नहीं होगी। [10-11. परत्वाऽपरत्वयोः किं लक्षणं, के च भेदाः ?] पराऽपरव्यवहाराऽसाधारणकारणे परत्वाऽपरत्वे / पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिनी / ते च द्विविधे-दिक्कृते कालकृते वेति / दूरस्थे दिक्कृतं परत्वम् / समीपस्थे दिक्कृतमपरत्वम् / ज्येष्ठे कालकृतं परत्वम् / कनिष्ठे कालकृतमपरत्वम् / अनुवाद-[१०-११. परत्व-अपरत्व के क्या लक्षण हैं और उनके भेद कौन हैं ? ] पर ( यह इससे दूर है अथवा ज्येष्ठ है ) और अपर ( यह इसके निकट है अथवा इससे कनिष्ठ है ) व्यवहार के असाधारण कारणों को क्रमशः परत्व और अपरत्व गुण कहा जाता है। ये दोनों / परत्वापरत्व) पृथिवी, जल, तेज, वायू तथा मन में रहते हैं। ये दोनों दिशाकृत और कालकृत के भेद से दो प्रकार के हैं ( दिक्कृत-परत्व, दिक्कृत-अपरत्व, कालकृत-परत्व और कालकृतअपरत्व ) / दूरस्थ पदार्थों में दिक्कृत परत्व है, समीपस्थ पदार्थों में दिक्कृत-अपरत्व है, ज्येष्ठ में कालकृत-परत्व है और कनिष्ठ (छोटे) में कालकृत-अपरत्व है। . . अनुवाद-[९. विभाग का क्या लक्षण है ? ] संयोग के नाशक { परस्पर मिले हुए पदार्थों के अलग-अलग होने पर संयोग का नाश . होता है, उस संयोग को नष्ट करने वाले ) गुण को विभाग कहते हैं। वह विभाग सभी द्रव्यों में रहता है। व्याख्या-जिस गुण से संयोग का नाश होता है वह विभाग गुण सभी द्रव्यों में रहता है। यह विभाग गुण संयोग का अभाव ही नहीं है, अपितु एक वास्तविक सत्ता है जो संयोग को समाप्त

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