Book Title: Tark Sangraha Author(s): Sudarshanlal Jain Publisher: Siddha Saraswati Prakashan View full book textPage 9
________________ 12 ] [ तर्कसंग्रहः समवायोऽभावश्च ] [ 13 विशेष की कुछ परिभाषाएं-(१) जातिरहितत्वे सति नित्यद्रव्यवृत्तिः (जाति से रहित होते हुए जो नित्य द्रव्यों में रहने वाला हो), (2.) एकमात्र समवेतत्वे सति सामान्यशून्यः ( एकमात्र समबेत होकर भी सामान्य से शून्य)। समवायः कतिविधः ? ] समवायस्त्वेक एव / अनुवात--[ समवाय = नित्य सम्बन्ध कितने प्रकार का है?] समवाय एक ही है। ध्याख्या-समवाय एक विशेष प्रकार के घनिष्ठ सम्बन्ध का / द्योतक है। यह संयोग की तरह गुण नहीं है अपितु स्वतन्त्र पदार्थ है। समवाय को स्पष्ट करते हुए अन्नम्भट्ट ने कहा है कि समवाय उन दो पदार्थों में जो सदा अविभक्त रहते हैं, रहने वाला नित्य सम्बन्ध है। संयोग गुण है तथा अनित्य सम्बन्ध है। घट के कपालद्वय का परस्पर सम्बन्ध संयोग सम्बन्ध है, क्योंकि वे दोनों घटोत्पत्ति के पूर्व पृथक्-पृथक् थे तथा घट-नाश के द्वारा भी पृथक्-पृथक् किये जा सकते हैं। परन्तु घट का कपालद्वय के साथ जो सम्बन्ध है वह समवाय है, क्योंकि घट उन कपालों से पृथक न कभी था और न कभी हो सकता है। अतः घट और कपाल परस्पर अयुतसिद्ध हैं। निम्न 5 स्थलों में अयूतसिद्ध = समवाय सम्बन्ध माना गया है-(१) अवयव और अवयवी में, जैसे-कपालद्वय और घट में ( कपालद्वय में घट समवाय सम्बन्ध से रहता है)। (2) गुण और गुणी में, जैसेरूपादि गुण घट ( गुणी) में। (3) प्रिया और क्रियावान में. जैसे-उत्क्षेपण आदि क्रिया घट (क्रियावान् ) में। (८)जाति और व्यक्ति में, जैसे--घटत्व घट में। (5) विशेष और उसके अधिकरण नित्य द्रव्य में, जैसे जलपरमाणु विशेष जलपरमाणु में।। घटादीनां कपालादौ द्रव्येषु गुणकर्मणोः / तेषु जानेश्च सम्बन्ध: गमवायः प्रकीर्तितः / / कारिकावली 11 // न्यायदर्शन में समवाय का विशेष महत्त्व है क्योंकि उसके कार्यकारण के सिद्धान्त का आधार समवाय ही है। सांख्य, वेदान्त, जैन आदि दर्शनों में समवाय-सम्बन्ध नहीं माना जाता है। अन्यत्र इसे अभेद सम्बन्ध या तादात्म्य सम्बन्ध कहा जाता है, परन्तु स्वरूप में, अन्तर है। न्याय दर्शन का समवाय नित्य सम्बन्ध माना जाता है परन्तु उसकी नित्यता आपेक्षिक ( कुछ विशेष प्रकार की ) है। जैसे घटादि कार्य के नष्ट हो जाने पर वह समवाय भी नष्ट हो जाता है। अतः समवाय की नित्यता से तात्पर्य है-'घटादि कार्य को उत्पन्न किये बिना न तो इसे उत्पन्न किया जा सकता है और न घटादि कार्य को नष्ट किए बिना इसे नष्ट किया जा सकता है। अर्थात् घटादि कार्य के साथ ही यह उत्पन्न होता है और उसके नष्ट होते ही नष्ट हो जाता है। परन्तु जब तक घट रहता है उससे वह कभी भी किसी भी प्रकार से अलग नहीं होता है। यही उसकी नित्यता है। अतः कुछ. नव्य नैयायिक इसे नित्य नहीं मानते हैं। समवाय को अन्नम्भट्ट ने एक ही बतलाया है / नैयायिक समवाय को प्रत्यक्ष मानते हैं परन्तु कुछ लोग ( अन्नम्भद्र भी ) अनुमेय मानते हैं, क्योंकि आकाश के प्रत्यक्ष न होने से आकाशगत शब्द का समवाय प्रत्यक्ष कैसे होगा? समवाय समवायियों में समवाय सम्बन्ध से न रहकर तादात्म्य सम्बन्ध से ही रहता है, अन्यथा अनवस्था दोष होगा। [अभाव: कतिविधः? ] अभावश्चतुर्विधः-प्रागभावः प्रध्वंसाभावोऽत्यन्ताभावोऽन्योन्याभावश्चेति / [इति उद्देशप्रकरणम् ] अनुवाब-[अभाव कितने प्रकार का है ? ] अभाव चार प्रकार का है-(१) प्रागभाव ( कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कपाल-द्वय में रहने वाला) (२)प्रध्वंसाभाव या विनाश / कार्योत्पत्ति के पश्चात् [.Page Navigation
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