Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 14
________________ 22 ] [ तर्कसंग्रहः अनित्य / नित्य वायु परमाणुरूप है और अनित्य वायु कार्यरूप है। शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से अनित्य वायु पुनः तीन प्रकार का है। शरीरात्मक वायु (वायवीय शरीर ) वायूलोक में है। इन्द्रियात्मक वायु (वायवीय इन्द्रिय) स्पर्श (उष्ण, शीतल आदि स्पर्श) की ग्राहक त्वगिन्द्रिय है जो सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। विषयात्मक वायु (वायवीय विषय) वृक्ष आदि (जल आदि) को हिलाने वाला है। शरीर के अन्दर सञ्चार करने वाले वायु को 'प्राण' (प्राणवायु) कहते हैं। यद्यपि वह प्राणवायु एक ही है परन्तु उपाधि के भेद से प्राण, अपान आदि ( समान, उदान और व्यान) संज्ञाओं (नामों ) को प्राप्त होता है। अर्थात् हृदयस्थ वायु को प्राणवायु, गुदाभागस्थ वायु को अपान वायु, नाभिप्रदेशस्थ वायू को समान वायू, कण्ठदेशस्थ वायु को उदान वायु तथा सम्पूर्ण शरीर-व्यापी वायु को व्यान वायु कहते हैं। इस तरह वह एक ही वायु आश्रय के भेद से पाँच भागों में विभक्त हो जाता है। व्याख्या--प-रहित स्पर्शवान् को वायु कहा गया है। इसका सर्श अनूष्णाशीत (न उष्ण और न शीतल) माना गया है। अतः जल और तेज में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। रूपरहित होने से पृथिब्यादि में अतिव्याप्ति नहीं होगी। केवल रूपरहित कहने पर आकागादि में अतिव्याप्ति होती. अतः स्पर्शवान भी कहा है। केवल स्पर्शवान् कहने से पृथिव्यादि में अतिव्याप्ति होती। प्राण को भी वायु के अन्तर्गत बतलाया गया है। उस प्राण के ही उपाधि-भेद से , पांच भेद किए गये हैं। अर्थात् शरीर के भीतर विभिन्न स्थानों पर पृथक्-पृथक् कार्य करते हुए संचार करने वाली वायु को ही प्राणादि * के नाम से अभिहित किया जाता है। कहा है-- हृदि प्राणो गुदेऽपान: समानो नाभिसंस्थितः / उदानः कण्ठदेशस्थो व्यानः सर्वशरीरगः / / ' 'वायु का प्रत्यक्ष होता है या नहीं इस विषय में नैयायिकों के दो मत हैं-(१) प्राचीन नैयायिकों ( अन्नम्भट्ट भी ) के अनुसार वायु आकाशलक्षणम् ] [ 23 प्रत्यक्षगम्य न होकर अनुमेय है / उनका हेतु है कि प्रत्यक्ष होने के लिए स्पर्शवान के साथ उद्भूत रूपवान् भी होना चाहिए। अतः वे अनुष्णाशीतस्पर्श से वायु को अनुमेय मानते हैं-स्पर्शानुमेयो वायुः / तथाहियोऽयं बायो वाति सति अनुष्णाशीतस्प: भासते स स्पर्शः क्वचिदाश्रित , गुणत्वात्, रूपवत् / (2) नव्यनैयायिकों के अनुसार वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है। इनका कयन है कि चाक्षुष प्रत्यक्ष के ही लिए उद्भूतरूप होना आवश्यक है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वायु एक प्रकार की गैस है। [आकाशस्य किं लक्षणं, कतिविधं च तत् ? ] शब्दगुणकमाकाशम् / तच्चैक विभु नित्यं च। अनुवाद-[ आकाश का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है ? ] आकाश वह है जिसमें [समवाय सम्बन्ध से ] शब्द गुण विद्यमान हो / वह आकाश एक है, व्यापक है और नित्य है। व्याख्या शब्द गुण के आश्रय को आकाश कहा गया है। आकाश को अनेक मानने का कोई प्रयोजन न होने से वह एक है। 'घटाकाश' आदि व्यवहार औषाधिक है। यभी मूर्त द्रव्यों ( पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन ) से संयुक्त होने के कारण व्यापक है। व्यापक होने से नित्य है। पृथिवी, जल, तेज और वायु के साथ आकाम को भी भून माना जाता है क्योंकि इनके विशेषगुण (गन्ध, रस, रूप स्पर्श और शब्द) बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण किये जाते हैं अथवा किसी कार्य का उपादान कारण होना 'भूत' होने का नियामक है। आकाश भी शब्द-गुण का उपादान कारण होने से भूत है / परिच्छिन्न (सीमित ) परिमाण न होने से अथवा क्रिया का आश्रय न होने से आकाश को पृथिव्यादि की तरह मूर्त नहीं माना जाता है। वह काल 'आदि की तरह अमूर्त है। प्रश्न-जैसे पृथिव्यादि की परिभाषाओं में 'गुण' पद का सन्निवेश नहीं है उसी प्रकार यहाँ भी 'शब्दवदाकाशम्' कहा जा सकता था,

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