Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 12
________________ 18] [ तर्कसंग्रहः जल-तेजसोः लक्षणे 1 [ 19 विशेषगुणानाश्रयत्वे सति ज्ञानकारणमनःसंयोगाश्रयम्' (जो मन के संयोग से ज्ञान का कारण हो परन्तु स्वयं शब्द के अलावा किसी अन्य विशेष गुण का आश्रय न हो)। विषय शब्द का अर्थ हैशरीर और इन्द्रिय से भिन्न निर्जीब पाषाणादि ज्ञेय पदार्थ / इस तरह यहाँ 'विषय' शब्द एक सीमित अर्थ में प्रयुक्त हआ है, समस्त ज्ञेय पदार्थो के अर्थ में नहीं। परमाणुओं की विषय माना जाए कि नहीं इस विषय में मतभेद है। इसी तरह 'वक्ष को विषय माना जाए या शरीर' इस विषय में भी मतभेद है। [जलस्य किं लक्षणं, कति च भेदाः ? ] शीतस्पर्शवत्य . आपः / ता द्विविधाः। नित्या अनित्याश्च / नित्या परमाणुरूपाः अनित्या कार्यरूपाः। पुनत्रिविधाः शरीरेन्द्रियविषयभेदात् / शरीरं वरुणलोके। इन्द्रिय रसग्राहकं रसनं जिह्वाग्रवति / विषयः सरित्समुद्रादिः। अनुवाद--[ जल का क्या स्वरूप है और उसके कितने भेद हैं ?] जल वह है जिसमें (समवाय सम्बन्ध से) शीतल स्पर्श नामक गुण पाया जाता है। जल दो प्रकार का होता है --(1) नित्य जल और (2) अनित्य जल। परमाणुरूप जल नित्य जल है तथा कार्यरूप ' जल (नदी आदि रूपया द्वषणुक आदि रूप) अनित्य जल है। पुनः (वह कार्यरूप अनित्य जल ) शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का है / जैसे-वरुण लोक में | प्राणियों का शरीर जलात्मक है, अतः उनका शरीर ] शरीरात्मक जल ( जलीय शरीर ) है। जिह्वा के अग्रभाग में स्थित रस गुण को ग्रहण करने वाली जीभ इन्द्रियात्मक जल (जलीय इन्द्रिय) है। नदी, समुद्र आदि ( तालाब, कूप आदि ) विषयात्मक जल ( जलीय विषय) है। व्याख्या-- 'शीतल स्पर्श होना' जल का स्वरूप है। अन्य पाषाणादि द्रव्यों में जो शीतलता देखी जाती है वह जल के सम्बन्ध के ही कारण है। यहाँ भी पृथिवी की ही तरह 'शीतस्पर्शवत्व' का अर्थ है-'शीतस्पर्शसमानाधिकरणद्रव्यत्वव्याप्यजातिमत्त्व / ' शेष निरूपण पृथिवी के ही समान है। यहाँ यह विचारणीय है कि पार्थिव शरीर तो प्रत्यक्ष है परन्तु जलीय-शरीर जलमय कैसे है? जलीय शरीर वरुण लोक में माना गया है, क्योंकि यहाँ प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। टीकाकारों ने जलीय शरीर में स्थिरता प्रदान" / हेतु उसमें पार्थिव का अल्प सम्मिश्रण माना है। जलीय इन्द्रिय की भी यही स्थिति है परन्तु जलीय इन्द्रिय जिह्वा प्रत्यक्ष है। तेजसः किं लक्षणं, के च भेदाः 1] उष्णस्पर्शवत्तेजः। तच द्विविधम् / नित्यमनित्यं च / नित्यं परमाणुरूपम् / अनित्यं कार्यरूपम् / पुनस्त्रिविधं शरीरेन्द्रियविषयभेदात् / शरीरमादित्यलोके प्रसिद्धम् / इन्द्रियं रूपग्राहक चक्षुः कृष्णताराप्रवति / विषयश्चतुर्विधो भौमदिव्योदर्याकरजभेदात् / भौमं बहथादिकम् / अविन्धनं दिव्यं विद्युदादि / भुक्तस्य परिणामहेतुरुदर्यम् / आकरजं सुवर्णादि / अनुवाद--[ तेज का क्या स्वरूप है और उसके कितने भेद हैं ? ] ' तेज बह है जिसमें [ समवाय सम्बन्ध से | उष्ण स्पर्ण (गुण) हो। वह तेज दो प्रकार का है-नित्य तेज और अनित्य तेज। परमाणरूप तेज नित्य तेज है और कार्यरूप तेज ( वह्नि आदि या द्वयणुकादि रूप तेज ) अनित्य है। पुनः [ कार्यरूप अनित्य तेज ] शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का है। शरीरात्मक तेज (तेजस शरीर ) आदित्य (सूर्य) लोक में प्रसिद्ध है। रूप गुण का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाली आंख जो काली पुतली के अग्रभाग में स्थित है वह इन्द्रियात्मक तेज (तैजस इन्द्रिय) है। तेजस विषय भौम, दिव्य, उदर्य और आकरज के भेद से चार प्रकार का होता है। अग्नि आदि (जुगनू आदि ) भौम तेज हैं [ क्योंकि वह भूमिरूप इन्धन से उत्पन्न

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