Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 10
________________ 14] [ तर्कसंग्रहः अभावः ] [15 / / नष्ट घट में रहने वाला), (3) अत्यन्ताभाव ( त्रैकालिक अभाव) और / 4) अन्योन्याभाव या भेद ( वस्तु का तादात्म्य-सम्बन्ध से स्वेतर वस्तु में न रहना ) / [उद्देश प्रकरण समाप्त ] व्याख्या-अभाव का अर्थ है-भाव-भिन्न। अतः अभाव का लक्षण किया है....'प्रतियोगिज्ञानाधीनविषयत्वम्' जिसका ज्ञान उसके प्रतियोगी विरोधी शत्रुभूत ) पदार्थ के ज्ञान पर आधारित हो। जैसे--'घटाभाववद् भूतलम्' यह भूतल घटाभाव वाला है। अर्थात् यहाँ घट नहीं है। यहाँ घटाभाव का-प्रतियोगी (विरोधी) है 'घट'। उस प्रतियोगी घट की इस भूतल पर अनुपस्थिति है। अतः यहाँ घटाभाव है। इस तरह घट के अभाव का ज्ञान उसके प्रतियोगी घट के ज्ञान पर आधारित हुआ। अभाव का नैयायिकों ने प्रत्यक्ष माना है। उनका कहना है कि अभाव विशेषणता सम्बन्ध से अधिकरण से सम्बद्ध रहता है। यह न तो समवाय सम्बन्ध से कहीं रहता है और न इसमें कोई समवाय सम्बन्ध से रहता है। अतः जब 'घटाभाववद् भूतकम्' कहा जाता है तो उसका अर्थ है भूतल घटाभाव से विशिष्ट है। यही विशेषणता सम्बन्ध से अभाव का अधिकरण में रहना है। कुछ लोगों का कहना है कि कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ को नहीं गिनाया है परन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त 'कारणाभावात् कार्याभावः' आदि प्रयोगों को देखकर व्याख्याकारों ने अभाव को पृथक पदार्थ मान लिया है। वस्तुतः इस भ्रम का कारण प्रक्षिप्त पाठ है। अभाव के जो चार भेद किये गये हैं वे आपेक्षिक भेद हैं, वास्तविक नहीं, क्योंकि अभाव भूतल का कोई विशेषण नहीं है, अपितु भूतल को केवल भूतल के ही रूप में कहने का एक प्रकार है। प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव को संसर्गाभाव भी कहा जाता है। अतः संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव के भेद से अभाव के दो भेद भी किये जाते हैं। अन्योन्याभाव में दोनों पदार्थ समानाधिकरण (प्रथमान्त ) होते हैं और संसर्गाभाव में एक अधिकरण होता है और दूसरा आधेय / क्रमशः इनके स्वरूप निम्न हैं (1) प्रागभाव-( उत्पत्तेः पूर्व कार्यस्य ) घटादि कार्य की उत्पत्ति से पूर्व कपालादि में रहने वाला जो घटादि का अभाव है वह प्रागभाव है। अर्थात् जिसका विनाश तो होता हो परन्तु जिसकी उत्पत्ति न होती हो वह प्रागभाव है। अतः इसे अनादि और सान्न माना जाता है। जैसे-घटोत्पत्ति के पूर्व कालादि में घट का अभाव प्रागभाव है। (2) अध्वंसाभाव - उत्पनन्तर कार्यस्थ) पत्थर आदि के प्रहार से घटादि कार्य के नष्ट हो जाने पर होने वाला घटादि कार्य का अभाव है प्रध्वंमाभाव अर्थात् जिसकी उत्पत्ति तो होती है परन्तु विनाश नहीं होता है / अतः सादि और अनन्त माना जाता है। जैसेटूटे हुए घट के टुकड़ों में घट का प्रध्वंसाभाव है। (3) अत्यन्ताभाव-(त्रैकालिक-संसर्गावच्छिन्न प्रतियोगिताक: ) त्रैकालिक अभाव है अत्यन्ताभाव / अर्थात जिसकी न तो उत्पत्ति हो और न नाश हो परन्तु जिसकी प्रतियोगिता संयोग, समवाय आदि किसी सम्बन्ध से अवच्छिन्न / युक्त) हो, वह है अत्यन्ताभाव / जैसे-वायु में रूप का अभाव है। इसी प्रकार इस घर में घट नहीं है' इन ज्ञान का विषय भी है अत्यन्ताभाव।। (4) अन्योन्यानाव- तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकः) 'घट पट नहीं है और पट घट नहीं है। इस ज्ञान का विषय जो अभाव है वह है अन्योन्याभाव या पारस्परिक अभाव / इसे ही पारिभाषिक * अवच्छिन्न हो। तादात्म्य सम्बन्ध से वस्तु अपने में ही रहती है और जहाँ जो वस्तु जिस सम्बन्ध से नहीं रहती है वहाँ उस वस्तु का तत्सम्ब-धावच्छिन्ना-प्रतियोगिताक अभाव रहता है। जैसे-तादात्म्य

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