Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ 8 ] [ तर्कसंग्रहः कर्म-सामान्यनामानि ] प्रश्न-किस द्रव्य में कौन-कौन से गुण होते हैं ? उत्तर--(१) पृथिवी में-स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, वेग (संस्कार), गुरुत्व, द्रवत्व, रूप, रस और गन्ध-ये 14 गुण हैं। (2) जल में पृथ्वी के गुणों में गन्ध के स्थान पर स्नेह कर देने से जल के भी 14 गुण हैं। (3) तेज में-स्पर्शादि 8 तथा रूप, द्रवत्व और वेग ( संस्कार ) / (4) वायु में-स्पर्शादि 8 तथा वेग (संस्कार)।(५) आकाश मेंसंख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग और शब्द / (6-7) काल और दिशा में-संख्यादि 5 गुण / (8) आत्मा में-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संख्यादि 5, भावना (संस्कार), धर्म और . अधर्म-ये 14 गुण हैं / (9) मन में-संख्यादि 5, परत्व, अपरत्व, / और वेग ( संस्कार )-ये 8 गुण हैं। (10) ईश्वर में-संख्या दि 5, बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न-ये 8 गुण हैं। [क्रियन्ति कर्माणि, कानि च तानि?1 उत्क्षेपणाऽपक्षेपणाऽऽकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्च कर्माणि / अनुवाद-[कर्म कितने हैं और वे कौन हैं ] कर्म पाँच हैं-- (1) उत्क्षेपण ( ार की ओर फेकना या जाना ), (2) . . अपक्षेपण (नीचे की ओर फेंकना या जाना), (3) आकूश्चन (समेटना, सकुचना या एकत्रित होना), (4) प्रसारण (फैलाना या फैलना) और (5) गमन ( अन्य सभी प्रकार की गति)। व्याख्या-कर्म की कई परिभाषाएँ ग्रन्थों में मिलती हैं। जैसेदीपिका टीका में 'संयोगभिन्नत्वे सति संयोगासमवाथिकारणं कर्म' (कर्म संयोग का असमवायिकारण तो है परन्तु स्वयं संयोग नहीं है। (2) कणाद ने 'एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षं कारणमिति कर्मलक्षणम्' (कर्म एक द्रव्य में रहने वाला किन्तु गुण से भिन्न संयोग-विभाग में अनपेक्ष कारण है) कहा है। इस तरह कर्म उसे कहेंगे जिसके होने पर संयोग और विभाग अनिवार्य हो। कर्म सामान्यतः गति का बोधक है। और गति प्रायः तीन प्रकार की होती है-ऊपर से नीचे की ओर, नीचे से ऊपर की ओर; और वक्र (तिर्यक् ) / बक्रगति दो प्रकार की हो सकती है। दूरगामी और निकटगामी। शेष गतियों ( भ्रमण, रेचन, स्पन्दन आदि) को गमन माना जाता है। [सामान्यं कतिविधम् ? ] परमपरं चेति द्विविधं सामान्यम् / अनुवाद-[ सामान्य कितने प्रकार का है? ] सामान्य दो प्रकार का है -(१)पर-पामान्य ( जो अधिक देश में रहता है ) और (2) अपर-सामान्य ( जो कम देश में रहता है)। व्याख्या-सामान्य वह है जो नित्य है, एक है और अनेक अधिकरणों में समवाय-सम्बन्ध से रहता है (नित्यमेकमनेकानगतम्)। घट अनित्य है परन्तु उसमें तथा अन्य अनेक घटों में समवाय-सम्बन्ध से रहने वाला घटत्व नित्य है, एक है, अतः वह सामान्य है। सामान्य को ही कालान्तर में 'जाति' नाम से कहा जाने लगा। यह सामान्य द्रव्य, गुण और कर्म-- इन तीन पदार्थों में ही रहता है। यह सामान्य (जाति) पर और अपर के भेद से दो प्रकार का है। 'पर' वह है जो अधिक आश्रय में रहे और 'अपर' वह है जो अपेक्षाकृत उससे अल्प धाश्रय में रहे। जैसे--सत्ता नाम की जाति अन्य सभी सामान्यों से अधिक आश्रय में रहने के कारण 'पर' है। 'घटत्व', 'पटत्व' आदि जातियाँ अल्प आश्रय में रहने के कारण 'अपर' हैं / द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि परापर सामान्य हैं क्योंकि ये सत्ता की अपेक्षा अल्प देश वृत्ति हैं और घटत्वादि की अपेक्षा अधिक देशवृत्ति / इसे ही क्रमशः तर्कामृत में व्यापक (सत्ता परसामान्य), व्याप्य (घटत्व- अपर सामान्य ) और व्याप्यव्यापक (द्रव्यत्व = परापर सामान्य ) सामान्य कहा है। वस्तुतः पर और अपर का विभाजन सापेक्ष है। कणाद ने सामान्य और विशेष को वैशेषिक

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65