Book Title: Tark Sangraha
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Siddha Saraswati Prakashan

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Page 6
________________ [ तर्कसंग्रहः गुणनामानि ] (18) दुःख, (19) इच्छा, (20) द्वेष, (21) प्रयत्न, गया है (परत्व एवं आरत्व का विप्रकृष्टत्व और सन्निकृष्टत्व में (22) धर्म, (23) अधर्म और ( 24 ) संस्कार। अथवा ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व में अन्तर्भाव माना है। पृथक्त्व को व्यापा-दीपिका टीका में गुण की दो परिभाषाएँ दी गई हैं-- / अन्योन्यामात्र का ही एक रूप माना है)। कुछ टीकाकारों ने लघुत्व (1) 'द्रव्यकर्मभिन्नाचे सति सामान्यवान् गुणः' ( सामान्यवान् - मृदुत्व, कठिनत्व, आलस्य आदि को भी पृथक गुण स्वीकार किया जातिमान् पदार्थ को गुण कहते हैं परन्तु वह द्रव्य और कर्म से भिन्न है परन्तु न्याय शास्त्र में ख्याति 24 गुणों की ही है। हो) अथवा (2) 'गुणत्वजातिमान्' ( जिसमें गूणत्व जाति रहती इन 24 गुणों को सामान्य गुण ( दो या उससे अधिक द्रव्यों में हो)। भाषापरिच्छेद (86) में 'द्रव्याश्रिता शेया निर्गुणा निष्क्रिया - " एक साथ रहने वाले ) तथा विशेष गुण ( एक समय में एक ही द्रव्य गुणा.' (जो स्वयं गुण और क्रिया से रहित हैं तथा द्रव्याधित हैं उन्हें में रहने वाले ) के भेद से दो भागों में भी विभक्त किया जाता है। गुण कहते हैं। कहा है तथा कणाद के वैशेषिक दर्शन ( 111116 ) में बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, नामिद्धिक"द्रव्याश्रयीन गुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुण-लक्षणम्' / / द्रवत्व, अदृष्ट ( धर्म और अधर्म ), भावना-संस्कार ( संस्कार के तीन बतलाया है। (संयोग और विभाग में अनपेक्ष अकारण, निर्गुण एवं भेद हैं-वेग, भावना और स्थितिस्थापक) और शब्द ये 14+2 द्रव्याश्रयी को गुण कहते हैं। यहाँ संयोग-विभाग में अनपेक्ष अकारण विशेष गुण हैं। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, पद द्वारा कर्म में अतियाप्ति का वारण किया गया है क्योंकि मंयोग अपरत्व, अ द्विक द्रवत्व ( नैमित्तिक द्रवत्व) गुरुत्व और वेग विभाग में कारण कर्म है) (संस्कार भेद ) ये 8+2 सामान्य गुण हैं। इस तरह संस्कार और द्रवन्ध आंशिक रूप से दोनों में है। उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि द्रव्य में मवाय मूर्त और अमूर्त के भेद से भी गुण तीन भागों में विभक्त किये सम्बन्ध स गुण और कर्म दोनों रहते हैं। अतः गुण की परिभाषा जाते हैं-(१) मूर्त गुण-(जो गुण अमूर्त पदार्थों में नहीं रहते, में कर्मको पृ.क करने के लिए कर्मभिन्नत्य बतलाया गया है तथा न कि मूर्त में रहने वाले; अन्यथा संख्या में अतिव्याप्ति होगी) स्वरूप-सम्बन्ध से गुणों में संख्यात्मक गुण का अस्तित्व माना जाने .. रूप रस, स्पर्श, गन्ध, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग (संस्कर), से 'निर्गणत्व' पद का सन्निवेश किया गया है। इस तरह गुण उसे स्थितिस्थापक (संस्कार ) तथा गुरुत्व ये 9+2 गुण मूर्त हैं। ' कहते हैं जो द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता हो, कर्म से भिन्न (2) अमूर्त गुण--(जो गुण मूर्त में नहीं रहते, न कि अमूर्त में हो, जाति से युक्त हो तथा निर्गुण हो। रहने वाले गुण, अन्यथा आकाशगत एकत्व में अतिव्याप्ति होगी। कणाद ने वैशेषिक दर्शन ( 1 / 1 ) में 17 गुणों को गिनाया धर्म, अधर्म, भावना (संस्कार ), शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इगछा, है. 'रूपरमगन्धस्पर्शसंख्या: परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागो द्वेष और प्रयत्न ये 9+1 अमूर्त गुण हैं। (3) उभयवृत्ति गुण - परत्वापरत्वे बुद्धिः (बुद्धयः) सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्च गुणाः' / संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग। यहाँ प्रयुक्त 'च' शब्द का आश्रय लेकर व्याख्याकारों ने गुरुत्व, द्रवत्व, गुणों का अन्य कई प्रकारों से ( एकेन्द्रियग्राह्य, द्वीन्द्रियग्राह्य, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द इन सात गुणों को जोड़कर अतीन्द्रियग्राह्य आदि) भी विभाजन किया जाता है जिसे कारिकाउपों की संख्या 24 कर दी है। नव्यन्याय में 21 गुणों को गिनाया वली (भाषापरिच्छेद ) आदि ग्रन्थों से देख लेना चाहिए।

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