Book Title: Subhashit Ratna Sandoha Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 9
________________ [ १० ] धर्मामृत में षडावश्यकों का कथन करते हुए इन सवका कथन किया है। अन्तमें कायोत्सर्गका कथन करते हुए उसके बत्तीस दोष मूलाचारके अनुसार कहे हैं। यह सब कथन मुनियोंके आचारसे भी सम्बद्ध है । नवम अध्यायमें दान, पूजा, शील और उपवासका कथन है। ये सब श्रावकोंका मुख्य कर्तव्य है । इसमें दाताके सात गुणोंके साथ उसके विशेष गुणोंका कथन विस्तारसे किया है । तथा भूमिदान, लोहदान, तिलदान, गृहदान, गौदान, कन्यादान, सक्रान्तिमें दान, पिण्डदान, मांसदान, स्वर्णदान आदि लोक प्रचलित दानोंका निषेध किया है । तथा अभयदान, अन्नदान, औषधज्ञान और ज्ञानदान देनेका विधान किया है । दसवें अध्यायमें पात्र, कुपात्र और अपात्रका विचार है। पात्र तीन प्रकारका होता है। तपस्वी उत्तमपात्र है, श्रावक मध्यपात्र है और सम्यग्दृष्टी जघन्यपात्र है। इन तीनों प्रकारके पात्रोंका स्वरूप विस्तारसे कहा है जो अन्य श्रावकाचारोंमें नहीं है । जो व्यसनी है, परिग्रही है, मद्य-मांस परस्त्रीका सेवी है वह अपाय हे उसे दान नहीं देना चाहिये । आगे उत्तमपात्र मुनिको दान देनेकी विधि कही है । ग्यारहवें परिच्छेद में चारों दानोंका वर्णन करते हुए उनके फलका कथन है । बारहवें परिच्छेद में अर्हन्तकी पूजाका विधान है । पूजाके दो प्रकार हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा | शरीर और वचनको जिनेन्द्रकी ओर लगाना तथा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप अक्षत आदि पूजा करना द्रव्यपूजा है और मनको जिनेन्द्रमें लगाना तथा उनके गुणोंका चिन्तन भावपूजा है । पूजाके पश्चात् शीलका वर्णन करते हुए जुआ, वेश्या, परस्त्री शिकार, आदि व्यसनोंकी बुराइयाँ कही है । आगे भोजन आदि करते हुए मौन धारण करनेकी प्रशंसा की है। मौनके पश्चात् उपवासका वर्णन है जिसमें सब इन्द्रियाँ अपना-अपना विषय सेवनरूप कार्यं त्यागकर आत्माके निकट वास करे वह उपवास है । आगे उपवासके अनेक प्रकारोंका वर्णन है । तेरहवें परिच्छेद में श्रावकको गुरुजनोंकी विनय, वैयावृत्य तथा स्वाध्याय आदिके द्वारा ज्ञानार्जन करते रहनेका सदुपदेश है । चौदहवें परिच्छेद में बारह भावनाओं का चिन्तनका विधान है । पन्द्रहवें परिच्छेद में ध्यानका वर्णन मोलिक है। इससे पूर्वके उपलब्ध साहित्य में ध्यानका ऐसा वर्णन देखने में नहीं आता । ध्यान, ध्याता ध्येयका स्वरूप बतलाते हुए पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंका विवेचन बहुत महत्त्वपूर्ण है । इस तरह अमितगतिकिा श्रावकाचार श्रावकाचारोंमें अपना विशिष्ट स्थान रखता है । ३. धर्म परीक्षा — यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवादके साथ भारतीय सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित हुआ था । जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बईसे भी इसका दूसरा संस्करण निकला था। स्व० डा० ए० एन० उपाध्येने भारतीय विद्या भवनं बम्बईसे प्रकाशित हरिभद्रके धूर्ताख्यानकी अपनी प्रस्तावनाम धर्मपरीक्षा नामक कृतियोंका विश्लेषणात्मक परिचय दिया है। अमिगतिसे पूर्व हरिषेणने अपभ्रंश भाषामें धर्मपरीक्षा रची थी जो जयरामकी कृतिको ऋणी है । और हरिषेणकी कृतिके आधारपर अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षा मात्र दो मासमें रचकर पूर्ण की थी। इसका नवीन संस्करण जीवराज ग्रन्थमालासे शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इसकी रचना अनुष्टुप छन्दमें हुई है। इसमें बीस परिच्छेद हैं। यह एक पुराणों में वर्णित अतिशयोक्तिपूर्ण असंगत कथाओं और दृष्टान्तोंकी असंगति दिखलाकर उनकी ओरसे पाठकों की रुचिको परिमार्जित करनेवाली कथा प्रधान रचना है। उसके दो मुख्य पात्र है मनोवेग और पवनवेग । दोनों विद्याधर कुमार हैं । मनोवेग जैनधर्मका श्रद्धानी है वह पवनवेगको भी श्रद्धानी बनानेके लिये पाटलीपुत्र ले जाता है । उस समय वहाँ ब्राह्मणधर्मका बहुत प्रचार था और ब्राह्मण विद्वान शास्त्रार्थके लिये तैयार रहते थे । दोनों बहुमूल्य आभूषणोंसे वेष्टित अवस्थामें ही घसियारोंका रूप धारण करके नगरमें जाते हैं और ब्रह्मशाला में रखी हुई भेरीको बजाकर सिंहासनपर बैठ जाते हैं। ब्राह्मण विद्वान किसी शास्त्रार्थीको आया जान एकत्र होते हैं और उनका विचित्ररूप देख आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह देखकर मनोवेग कहता है हम तो केवलPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 267