Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ 6 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूँगा (काल अकंखमाणे विहरामि)। यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती तो उसके प्रतिज्ञासूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। जैन विचारकों ने तो मरणाशंसा को समाधिमरण का दोष ही कहा है। अतः समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कह सकते। जैन विचारकों ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अग्निप्रवेश या गिरिपतन आदि के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है, क्योंकि ऐसा करने में मरणाकांक्षा की सम्भावना है। समाधिमरण में आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देह पोषण का विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है, लेकिन उसकी आकांक्षा नहीं। जैसे फोड़े की चीरफाड़ से वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। एक जैन आचार्य का कहना है कि समाधिमरण की क्रिया, करण के निमित्त नहीं होकर उसके प्रतिकार के लिए है। जैसे व्रण का चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतिकार के लिए होता है। यदि आपरेशन की क्रिया में हो जाने वाली मृत्यु हत्या नहीं है, तो फिर समाधिमरण में होने जाने वाली मृत्यु भी आत्महत्या कैसे हो सकती है? एक दैहिक जीवन की रक्षा के लिए है तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है, यही समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊबकर जीवन से भागना चाहता है, उसके मूल में कायरता है, जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता है। समाधिमरण में जीवन से भागने का प्रयास नहीं वरन् जीवन की संध्यावेला में द्वार पर खड़ी मृत्यु का स्वागत है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय में मृत्यु का आमन्त्रण है, जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष आलिंगन हैं। आत्महत्या के मूल में या तो भय होता है या कामना होती है, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों की. अनुपस्थिति आवश्यक होती है। समाधिमरण आत्म-बलिदान भी नहीं है। शैव और शाक्त सम्प्रदायों में पशुबलि के समान आत्मबलि की प्रथा रही है, लेकिन समाधिमरण आत्म-बलिदान नहीं है क्योंकि आत्म-बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्म-बलिदान की अनिवार्यता है जबकि समाधिमरण में विवेक का प्रकटन आवश्यक है। समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने का प्रयास भी किया है कि जैन-दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वरन् जीवन से इनकार करता है,

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