Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 52
________________ जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में प्रणीत आयुर्वेद-साहित्य : 43 व्याकरण, कोश, काव्य-छन्द, अलङ्कार, नीतिशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद विषयों पर विविध उत्कृष्ट ग्रन्थों का साधिकार प्रणयन कर अपने चरमज्ञान और अद्भुत बुद्धिकौशल का परिचय दिया है। यह स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने प्रचुर मात्रा में स्वतन्त्र रूपेण आयुर्वेदीय ग्रन्थों का निर्माण कर न केवल आयुर्वेद-साहित्य की अभिवृद्धि में अपना योगदान किया है अपितु जैन-वाङ्मय को भी एक लौकिक विषय के रूप में साहित्यिक विधा से अलंकृत किया है। अत: यह कहना सर्वथा न्यायसङ्गत है कि आयुर्वेद-साहित्य के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गयी सेवा भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति। इस साहित्य में कतिपय मौलिक विशेषताएँ विद्यमान हैं जो अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में संस्कृत का जैन-वाङ्मय विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में संस्कृत पाण्डुलिपियाँ बड़ी संख्या में संग्रहीत हैं। अभी तक जैनाचार्यों द्वारा रचित जो ग्रन्थ प्रकाशित हैं वे उनके द्वारा रचित उस विशाल साहित्य का अंश-मात्र ही हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अनुपलब्ध ग्रन्थों की जानकारी आचार्यों की अन्यान्य कृतियों एवं विभिन्न माध्यमों से प्राप्त होती है। कतिपय जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र रूपेण आयुर्वेदीय ग्रन्थों के निर्माण के स्थान पर अपने अन्य विषयक ग्रन्थों में यथा प्रसङ्ग आयुर्वेद सम्बन्धी अन्यान्य विषयों का प्रतिपादन किया है। उदाहरणार्थ - सोमदेव सूरि का 'यशस्तिलकचम्पू' तथा 'नीतिवाक्यामृतम्' पं० आशाधर द्वारा अष्टाङ्गहृदय पर टीका लेखन इत्यादि। आचार्य राजकुमार जैन ने आयुर्वेद के प्रति जैनाचार्यों के योगदान को तीन प्रकार से विभाजित किया है- स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना के रूप में, अपने अन्य विषय वाले ग्रन्थों में प्रसंगोपात्त वर्णन के रूप में तथा आयुर्वेद के ग्रन्थों के टीका के रूप में। प्राणावाय-परम्परा का साहित्य प्राणावाय की परम्परा के जनसामान्य तक पहुँचने का स्पष्ट वर्णन आचार्य उग्रादित्य के ग्रन्थ कल्याणकारक की 'प्रस्तावना' में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है- “भगवान आदिनाथ के समवसरण में उपस्थित होकर भरत चक्रवर्ती आदि भव्यों ने मानवों के व्याधिरूपी दुःखों का वर्णन कर उनसे छुटकारा प्राप्ति का उपाय पूछा। इस पर भगवान ने अपनी वाणी में उपदेश दिया। इस प्रकार प्राणावाय का ज्ञान तीर्थंकरों से गणधरों ने, उनसे प्रतिगणधरों ने, उनसे श्रुतकेवलियों ने और उनसे बाद में होने वाले अन्य मुनियों ने क्रमश: प्राप्त किया।" ऐसा प्रतीत होता है कि प्राणावाय का विपुल साहित्य प्राचीन काल में अवश्य विद्यमान रहा होगा किन्तु यह प्राचीन परम्परा मध्ययुग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी।

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