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जैन आचार का स्वरूप एवं लक्ष्य : 57 उसी प्रकार श्रामण्य की सुरक्षा के लिए, पाप के निरोध के लिए गुप्ति होती है। '
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४. तपाचार
'तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मंगंठि नासेति त्ति वुत्तं भवइ २५ अर्थात् कर्म शरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तथा कर्मक्षय का असाधारण हेतु तप कहलाता है। जो आठ प्रकार की कर्म ग्रन्थियों को तपाता है, उसका नाश करता है, वह तप है। जैन परम्परा के अनुसार तपस्या का अर्थ काय-क्लेश या उपवास ही नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सब तपस्या के ही प्रकार हैं । काय- क्लेश और उपवास अकरणीय नहीं हैं और उनकी सबके लिए कोई समान मर्यादा भी नहीं है । अपनी रुचि और शक्ति के अनुसार जो जितना कर सके, उसके लिए उतना ही विहित है । २६
तपाचार के दो भेद हैं - बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति -परिसंख्यान, काय-क्लेश और छठा विविक्तशय्यासन, ये बाह्य तप के छः भेद है। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग- ये छ: भेद अन्तरंग तप के हैं।
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५. वीर्याचार
ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप में अपनी शक्ति को नियोजित करना ही वीर्याचार है।" दशवैकालिक नियुक्ति में कहा गया है कि अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना में पराक्रम करना वीर्याचार है। १९ वीर्याचार के छत्तीस प्रकार बताये गये हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के सारे भेद मिलाने से छत्तीस होते हैं तथा वे ही वीर्याचार के प्रकार हैं। वीर्याचार का अर्थ है - जो शक्ति प्राप्त हुई है, उसका उपयोग करना। उसको कार्यकारी बनाना । जो शक्ति को प्राप्त करके भी आलस्य या प्रमाद के कारण उसका सही उपयोग नहीं करता, वह वीर्याचार के पालन से स्खलित हो जाता है। फलस्वरूप अपने मार्ग से च्युत हो जाने के कारण अपने इष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जो शक्ति का संगोपन नहीं करता, वह वीर्याचार का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। ध्यान, स्वाध्याय, तप आदि से संलग्न शक्ति साधक को उच्च आदर्श की ओर प्रस्थित करती है। समणी मंगलप्रज्ञा के अनुसार इस संदर्भ में यह स्मरणीय है कि शक्ति के अभाव में ज्ञान आदि का आसेवन नहीं हो सकता। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, किन्तु अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है, तो ज्ञानावरणीय. का क्षयोपशम कार्यकारी नहीं बन सकता। उसका उपयोग तभी हो सकता है,
जब