Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 113
________________ 104 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 पुस्तक: विशेषावश्यक भाष्य के गणधरवाद और निह्नववाद की दार्शनिक समस्याएँ और समाधान, लेखिका - साध्वी विचक्षणश्रीजी, प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर एवं तारक गुरु ग्रन्थालय उदयपुर, मार्च २०१५, पेपर बैक, पृष्ठ ४५४, मूल्य - रु० ४०० /जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित 'विशेषावश्यकभाष्य' जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में पञ्चविध ज्ञान, द्वितीय खण्ड में गणधरवाद एवं तृतीय खण्ड में निह्नव की चर्चा है। अन्तिम दो खण्डों की विषयवस्तु को ही आधार बनाकर प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन किया गया है। यह ग्रन्थ ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय परिचयात्मक है। इसके अन्तर्गत जैन आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य का परिचय देते हुए आगमिक व्याख्या साहित्य में विशेषावश्यक भाष्य के स्थान एवं महत्त्व को स्पष्ट किया गया है। द्वितीय अध्याय में प्रथम गणधर गौतम की आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी शंका एवं उसका समाधान प्रस्तुत है। तृतीय अध्याय में मुख्यरूप से आत्मा के बन्धन के हेतु के रूप में कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। चतुर्थ अध्याय में लेखिका ने आत्मा और शरीर की भिन्नताअभिन्नता पर विचार करते हुए अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर दोनों के बीच कथञ्चित् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता को सिद्ध किया है। पञ्चम् अध्याय में बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवाद की समीक्षा करते हुए बाह्य जगत् के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। लेखिका ने पुस्तक के छठे अध्याय में परलोक एवं पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसी प्रकार सातवें अध्याय में बन्धन और मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। अष्टम् अध्याय में पुण्य और पाप की अवधारणा को व्याख्यायित करते हुए आश्रव एवं बन्ध के रूप में पुण्य और पाप को स्पष्ट किया गया है। नौवें अध्याय में परलोक, स्वर्ग, नरक तथा पुनर्जन्म की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए आत्मा की परिणामी नित्यता को रेखांकित किया गया है। दसवें अध्याय में निह्नव का स्वरूप, जमालि का बहुतरवाद, आषाढ़भूति का अव्यक्तवाद, तिष्यगुप्त का चरम प्रदेशीय जीववाद, अश्वमित्र का समुच्छेदवाद, आर्य गंग का द्विक्रियाउपयोगवाद, रोहगुप्त का त्रैराशिकवाद, एवं गोष्ठामहिल के अबद्धिकवाद की स्थापना एवं समीक्षा की गयी है। अन्तिम एवं ग्यारहवें अध्याय में ग्रन्थ के विवेच्य विषय का संक्षिप्त निष्कर्ष दिया गया है। साध्वी श्री विचक्षणश्री जी ने इन प्रमुख दार्शनिक समस्याओं एवं उनका समाधान प्रस्तुत कर दर्शन के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान दिया है। आशा है यह कृति दर्शन जगत् के अध्येताओं के लिए लाभप्रद सिद्ध होगी। डॉ. श्रीनेत्र पाण्डेय *****

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