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56 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015
स्थिति में स्वाध्याय न करना । १२
२. दर्शनाचार
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सम्यक्त्व विषयक आचरण को दर्शनाचार कहा जाता है। सम्यग्दर्शन का अर्थ है तत्त्वों के प्रतिश्रद्धा रखना। यह दो प्रकार का होता है - १. नैश्चयिक और २. व्यावहारिक। नैश्चयिक सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध केवल आत्मा की आन्तरिक शुचि या सत्य की आस्था से होता है। व्यावहारिक सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध संघ, गण या सम्प्रदाय से भी होता है।” इसके आठ गुण हैं-नि:शंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । १५
स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कौशल और तीर्थसेवा - ये पाँच सम्यक्त्व के भूषण कहे जाते हैं । " सम्यग्दर्शन के आठो अंग सत्य की आस्था के परम अंग है। कोई भी व्यक्ति शंका, संदेह या भय, कांक्षा, आसक्ति या वैचारिक अस्थिरता, विचिकित्सा, घृणा या निंदा, मूढ़दृष्टि अपनी नीति के विरोधी विचारों के प्रति सहमति से मुक्त हुए बिना सत्य की आराधना नहीं कर सकता और उसके प्रति आस्थावान् भी नहीं रह सकता। ‘स्व-सम्मत' धर्म या साधर्मिकों का उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना किए बिना कोई व्यक्ति सत्य की आराधना करने में दूसरों का सहायक नहीं बन सकता।
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३. चारित्राचार
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चारित्र का लक्षण है - सत् आचरण में प्रवृत्ति और असत् आचरण से निवृत्ति । ' प्राणियों की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग करना - पाँच प्रकार का चारित्राचार है। यह परिणाम के संयोग से, पाँच समिति और तीन गुप्तियों में अकषाय रूप प्रवृत्ति से आठ भेद वाला है । १९
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समिति का अर्थ है- सम्यक् प्रवर्तन। सम्यक् और असम्यक् का मापदण्ड अहिंसा है, जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है, वह समिति है। समितियाँ पाँच है - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग। " जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा बाणों की वर्षा होने पर भी नहीं बींधा जा सकता, उसी प्रकार समितियों का सम्यक् पालन करने वाला मुनि साधु जीवन के विविध कार्यों में प्रवर्तमान होता हुआ भी पापों में लिप्त नहीं होता।
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गुप्ति का अर्थ है - निवर्तन। यह तीन प्रकार की है- मन, वचन और काय । जिस प्रकार क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़, नगर की रक्षा के लिए खाईं या प्राकार होता है,