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44: श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015
कारण कि आठवीं शती के अन्त में आचार्य उग्रादित्य द्वारा रचित 'कल्याणकारक' ही प्राणावाय सम्बन्धी एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ है।' इस ग्रन्थ में प्राणावाय सम्बन्धी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत अनेक ग्रन्थों का नामोल्लेख हुआ है। उसमें लिखा है- पूज्यपाद ने शालाक्य पर, पात्रस्वामी ने शल्यतन्त्र पर, सिद्धसेन ने विष और उग्रग्रहशमन विधि पर, दशरथ गुरु ने कायचिकित्सा पर, मेघनाद ने बालरोगों पर और सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि- समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठों अंगों पर ग्रन्थ रचना की थी। समन्तभद्र के अष्टांग विवेचन पूर्ण ग्रन्थ के आधार पर ही उग्रादित्य ने संक्षेप में अष्टाङ्गयुक्त 'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ की रचना की ।
प्राणावाय की परम्परा और शास्त्र ग्रन्थों का परिचय देने वाले इस ग्रन्थ के अलावा किसी भी आचार्य या विद्वान् ने प्राणावाय का उल्लेख अपने ग्रन्थ में नहीं किया है। मध्ययुग में प्राणावाय के लुप्त होने के कई संभावित कारण हो सकते हैं।
तदुपरान्त ईशा की तेरहवीं शती से हमें जैन श्रावकों और यति-मुनियों द्वारा निर्मित स्वतन्त्र आयुर्वेदीय ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। यद्यपि इस दौरान कतिपय जैनाचार्यों द्वारा रचित अन्य विषयक ग्रन्थों में यथा प्रसंग आयुर्वेद की चर्चा प्राप्त होती है जिसका वर्णन आगे किया जाएगा। ये ग्रन्थ प्राणावाय- परम्परा के नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें कहीं पर भी प्राणावाय का उल्लेख नहीं है। इनमें पाये जाने वाले रोग निदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थों के समान है। ये ग्रन्थ संकलनात्मक और मौलिक दोनों प्रकार के हैं। प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों पर देशीभाषा या संस्कृत में रचित कुछ टीका ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं। कुछ पद्यमय भाषानुवाद मात्र हैं। वर्तमान में पाये जाने वाले अधिकांश ग्रन्थ उपरोक्त कोटि के हैं। जैन परम्परा में इस प्रकार का साहित्य यतियों और भट्टारकों के आविर्भाव के बाद प्रकाश में आया है।
जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत आयुर्वेदीय ग्रन्थ
आयुर्वेद के स्वतन्त्र (मौलिक) ग्रन्थ, ग्रन्थों पर टीकाएँ, संग्रह ग्रन्थ और योग ग्रन्थों की रचना कर जैनाचार्यों ने भारतीय वैद्यक के इतिहास में स्वयं को अमर बना दिया है। वर्तमान में जिन ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त होती है उनके अनुसार जैनाचार्यों ने आयुर्वेद के ग्रन्थों का प्रणयन प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ और हिन्दी, इन चार भाषाओं में किया है।
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उपरोक्त सन्दर्भ में श्री अगरचन्द नाहटा, पं० के० भुजबलि शास्त्री, पं० नाथूराम प्रेमी एवं आचार्य राजकुमार जैन ने कई तालिकाएँ तैयार की हैं, जिनके द्वारा अनेक