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जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में प्रणीत आयुर्वेद-साहित्य : 47 पूर्वोक्त ग्रन्थों में से केवल कल्याणकारक ही उपलब्ध हो पाता है। यह ग्रन्थ ही प्राणावाय की परम्परा के ज्ञान का प्रमुख आधार है। आठवीं शती में रचित यह अष्टाङ्ग ग्रन्थ पच्चीस परिच्छेदों में विभक्त होने के साथ-साथ अरिष्टाध्याय एवं संहिताध्याय नामक दो परिशिष्टों से परिपूर्ण है। यह लगभग पाँच हजार श्लोक प्रमाण है। आयुर्वेद की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त ही उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में औषध में मांस की निरुपयोगिता को सिद्ध किया गया है। यह परिसंवाद ग्रन्थकार के द्वारा राजा अमोघवर्ष के दरबार में सैकड़ों विद्वानों व वैद्यों की उपस्थिति में सिद्ध किया गया था। यह परिसंवाद ग्रन्थ के अन्त में हिताहित नामक परिशिष्ट रूप में संस्कृत गद्य में दिया
गया है।१९
महाकवि धनञ्जयः (वि० सं० ९६०) ये दिगम्बर श्रावक विद्वान् थे। आयुर्वेद पर इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ हैं - ‘धनञ्जय निघण्टु' (नाममाला) और 'विषापहार स्तोत्र'।२० 'धनञ्जय निघण्टु' वैद्यक के साथसाथ कोश ग्रन्थ भी है। 'विषापहार स्तोत्र' के सन्दर्भ में प्रचलित है कि कवि के पुत्र को सर्प ने डस लिया था अत: सर्प विष को दूर करने के लिए ही इस स्तोत्र की रचना की गयी। इस ग्रन्थ में चालीस इन्द्रवज्रा छन्द हैं, अन्तिम पद्य का छन्द भिन्न है जिसमें ग्रन्थकर्ता ने अपना नाम दिया है। गन्थ का नामकरण चौदहवें पद्य में आये 'विषापहार' शब्द से हुआ है। इस स्तोत्र पर नागचन्द्र सूरि और पार्श्वनाथ गोम्मट कृत टीकाएँ प्राप्त हैं।२१ इसके अतिरिक्त पं० के० भुजबलि शास्त्री की सूची में “वैद्यक निघण्टु' नामक अनुपलब्ध ग्रन्थ इनके द्वारा रचित बताया गया है। आचार्य राजकुमार जैन ने इनके द्वारा रचित दो अन्य ग्रन्थों - 'निघण्टु समय' और 'निघण्टु शेष' का उल्लेख किया है परन्तु इनकी उपलब्धता पर प्रश्नचिह्न लगाया हुआ है।२३ गुणभद्र : (शक् सं० ७३७) इन्होंने 'आस्मानुशासन' की रचना की है, जिसमें आधोपान्त आयुर्वेद के शास्त्रीय शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा शरीर के माध्यम से आध्यात्मिक विषय को समझाया गया है। इनका वैद्यकज्ञान किसी भी वैद्य से कम नहीं था। सोमदेव सूरि : (१०वीं शती) इनके द्वारा रचित 'यशस्तिलकचम्पू' में स्वस्थवृत्त का अच्छा वर्णन प्राप्त होता है जिससे इनके आयुर्वेद ज्ञान का पता चलता है। इन्हें वनस्पति शास्त्र का भी अच्छा ।