Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में प्रणीत आयुर्वेद-साहित्य : 51 रामलाल महोपाध्याय : (२० वीं शती) ये बीकानेर के निवासी और धर्मशील के शिष्य थे। ये जैन खरतरगच्छ के जिनदत्तसूरि शाखा के अनुयायी थे। इनका एक वैद्यक ग्रन्थ 'रामनिदानम्' या 'रामऋद्धिसार' नाम से संस्कृत में पद्यबद्ध प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त पूर्वोल्लिखित सूचियों के आधार पर संस्कृत में रचित आयुर्वेदशास्त्रीय अन्य अनुपलब्ध ग्रन्थों का भी पता चलता है। जैसे- नारायण शेखर जैन द्वारा रचित'योग-रत्नाकर वैद्यवृन्द', 'वैद्यामृत', 'ज्वर निर्णय', 'ज्वर त्रिशती' की टीका और 'रत्नाकर औषधयोग' ग्रन्थ तथा धन मित्र का 'वैद्यक निघण्टु', वाग्भट्टाचार्य का 'प्रयोग-संग्रह' एवं रामचन्द्र की 'प्रयोग चन्द्रिका'। . इस प्रकार प्रस्तुत लेख में जैन विद्वानों द्वारा आयुर्वेद सम्बन्धी जो रचनाएँ रची गयी हैं उनपर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। यदि विशेष शोधकार्य किया जाय तो इस पर बहुत सामग्री उपलब्ध हो सकती है। उपर्युक्त विवेचित ग्रन्थों के व्यावहारिक पक्ष को देखें तो स्पष्ट है कि जैन विद्वानों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है। जैसे- अहिंसा के आदर्श पर उन्होंने मद्य, मांस और मधु के प्रयोग का सर्वधा निषेध किया है। क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। 'कल्याणकारक' में इसका युक्तियुक्त विवेचन प्राप्त होता है। किन्तु इसके प्रतिफल स्वरूप शल्यचिकित्सा जैन आयुर्वेद में अप्रचलित सी हो गयी और रसयोगों एवं सिद्धियोगों का बाहुल्येन उपयोग होने लगा। भारतीय वैद्यक शास्त्र की परम्पराओं के आधार पर रोग-निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा, मूत्र-परीक्षा आदि को जैन विद्वानों ने विशेष मान्यता प्रदान की। वनस्पति एवं खनिज द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन विद्वानों द्वारा विशेष प्रचलन किया गया। हम देखते हैं कि धर्म और दर्शनशास्त्र ने जिसप्रकार जैन संस्कृति के स्वरूप को अक्षुण्ण बनाया है, आचार और नीतिशास्त्र ने जिसप्रकार इसकी उपयोगिता को उद्भाषित किया है, उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र ने भी स्वास्थ प्रतिपादक सिद्धान्तों एवं संयमपूर्वक आहारचर्या आदि के द्वारा जैन धर्म एवं संस्कृति को व्यापक एवं लोकोपयोगी बनाने में अपना अपूर्ण योगदान दिया है। जैन आचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य का लेखन तथा व्यवहार समाजहित के लिए किया है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि आयुर्वेद-वाङ्मय के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गयी सेवा उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति। किन्तु क्षोभप्रद यह है कि जैनाचार्यों द्वारा

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