Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ संवेग के मूल रहस्य की जैन दृष्टि डॉ० समणी मल्लिप्रज्ञा संवेग की अवधारणा में उसकी संख्या निर्धारण में जटिलता रही है। आधारभूत संवेग का प्रश्न चर्चित है। आधारभूत संवेग हैं तो कितने हैं या नहीं तो क्यों नहीं, ऐसे बिन्दु भी विचारणीय हैं। संवेगों के भेद, प्रभेद, प्रकार और वर्गीकरण में भी अनेक दृष्टियों में मत वैविध्य देखा जाता है। कोई एक तत्त्व जिसे सभी संवेगों का उत्स, स्रोत कहा जा सके, यह प्रश्न भी विमर्शनीय है। पूर्वी और पाश्चात्य चिन्तकों ने इन सभी घटकों पर गहराई से चिन्तन-मनन किया है। प्रस्तुत प्रसंग में जैन-दृष्टि, वैदिक-दृष्टि, बौद्धदृष्टि, आयुर्वेदिक-दृष्टि साहित्य-दृष्टि, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य तथा शरीरशास्त्रीय सन्दर्भ में संवेग की संख्या-निर्धारण सम्बन्धित पहलुओं पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। संवेग का अस्तित्व प्रत्येक कालखण्ड में रहा है। भूत, भविष्य और वर्तमान आदि इन तीनों समयावधि में संवेग का प्रवाह निरन्तर है या फिर यूं कहा जा सकता है कि संवेग तत्त्व उतना ही पुराना है, जितना पुराना आत्म तत्त्व है। आत्म तत्त्व को शाश्वत माना गया है, उसका त्रैकालिक अस्तित्व है। आत्मा की अमरता का एक हेतु है- शरीर और आत्मा की अभेद बुद्धि जो कि कर्माश्रित है तथा जैन आचार दृष्टि से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध भी अनादिकालीन है। आत्मा के साथ कर्म बंधन में मूल हेतु बनता है- मोह। मोह तत्त्व को अन्यान्य भारतीय दर्शनों में माया, अविद्या आदि शब्दों से कहा गया है। मोह का भी परिचायक मूल शब्द जैन शब्दकोश में मिथ्यात्व अर्थात् अयथार्थ को यथार्थ तथा यथार्थ को अयथार्थ मानना रहा है, जिसे मनोविज्ञान और विज्ञान में deluded perception कहा गया है। हमारे सारे आचार, व्यवहार की तीव्रता, मंदता, शुभता और अशुभता आदि का निर्धारक घटक बनता है मोह का तारतम्य। संवेग के सन्दर्भ में जैनदृष्टि और भारतीय दृष्टि से 'मोह' शब्द की व्याख्या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। संवेग के स्वरूप, हेतु और प्रकार आदि के विश्लेषण में एक प्रमुख मुद्दा रहा हैसंवेग का मूल किसे माने या मूल संवेग क्या हो सकता है, जिसके आधार पर उसके अन्य सभी पहलुओं का विस्तार होता है, जैसे बीज से पेड़ का पूरा विस्तार जुड़ा हआ है। इसी तरह संवेग का वर्गीकरण करते समय मूल संवेग, आधारभूत संवेग तथा उसके भेद-प्रभेद को लेकर अभी तक कोई निर्णायक स्थिति तक नहीं पहुंचा जा सका है, न ही पहुँचने की संभावना नजर आती है। क्योंकि संवेग एक यात्रा है

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