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34 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 योगशास्त्र में वर्णित पांच क्लेश जो दुःख रूप हैं, वे सभी अविद्यामूलक ही हैं। ये उनके संवादी कहे जा सकते हैं। इन पांच क्लेशों में क्लेशमूल अर्थात् मुख्य संवेग अविद्या को ही माना गया है -अविद्या क्लेशमूला।' मूल संवेग क्या है? संवेग के मूल की चर्चा में मिथ्यादृष्टि और मिथ्या आचरण रूप मोह का विवेचन किया गया है। मोह राग का जनक है। राग को जैनदृष्टि में मूल संवेग सिद्ध किया गया है, क्योंकि मोह तो सूक्ष्मतम् तत्त्व है। उससे आत्मा के रागात्मक परिणाम बनते हैं, वे बाद में कषाय, लेश्या, भाव, आचार, व्यवहार आदि रूप धारण करते हैं। राग से हमारे व्यवहार तक की एक श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में मनोशरीर के सम्बन्ध को सारे व्यवहार का निर्धारक माना गया है। शरीर विज्ञान के अन्तर्गत जैन-रासायनिक संरचना, मानव-जीन विज्ञान, मस्तिष्क और स्नायु-ग्रंथि-तंत्र आदि घटकों को व्यवहार के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है। सांवेगिक व्यवहार का भी कारण इनके आसपास ही खोजने का प्रयास चल रहा है। वास्तव में जीन वातावरण, प्रकृति और पालन-पोषण के अनुसार हमारे आचार, व्यवहार को प्रभावित करने के लिए तदनुरूप संवेगोत्पत्ति में हेतुभूतं बनते हैं। जीन को unseen cognitive strategies कहा जा सकता है। यह विचार कार्मण शरीर की रहस्यात्मक लिपि का अनुवाद-सा लगता है। इसीलिए पाश्विक वृत्तियों के रहते हुए भी हम अवांछित व्यवहार को अनियंत्रित नहीं होने देते हैं। हमारे मस्तिष्क में बन्द करने के स्विच हैं, जो नियंत्रण की रेखा को पार नहीं करने देते। एक सूचना भीतर से आती है- इतना गुस्सा मत करो, इतनी हिंसा मत करो, इतने आक्रामक मत बनो आदि संकेत स्वायत्त नियंत्रण व्यवस्था के वाचक हैं। राग की तीव्रता और मन्दता हमारे आचार, व्यवहार को प्रभावित करती है इसलिए राग तत्त्व को गहराई से जानना आवश्यक है। इसकी उत्पत्ति का मूल कारण उपर्युक्त वर्णित चारित्र मोह है। वह दो फल देता है। चारित्र मोह के कारण जीव इष्ट पदार्थों के प्रति प्रीतिभाव तथा अनिष्ट पदार्थों के प्रति अप्रीतिभाव अनुभव करता है। यही प्रीति-अप्रीति भाव क्रमश: राग-द्वेष कहलाते हैं।११ ये ही राग-द्वेष चारित्र मोह शब्द के प्रतिपादक हैं, क्योंकि ये दो तत्त्व इसकी ही परिणति रूप हैं। चारित्र का अर्थ है राग का अभाव, कषाय का अभाव और चारित्र